मैं छत पर बैठा किताब के पन्नों को पलट रहा था. विचारों में मग्न, पन्नों को पलटते हुए, आने वाले समय के बारे में सोचते हुए, स्वयं का साहस बढ़ा रहा था. तभी बाबूजी ने निचे से आवाज़ लगायी. उनकी आवाज़ सुनकर मैं उनके समक्ष उपस्थित हुआ. बाबूजी की उम्र ७३ वर्ष हो चुकी है. चेहरा ढलते हुए सूरज की तरह लगता है. कभी देवानंद की तरह दिखने वाले मेरे बाबूजी, झुर्रियों और थकी हुई आँखों में, कुछ डरे से दिखाई देते हैं. किस बात का दर, शायद मृत्यु का या हमसे हमेशा के लिए बिछड़ जाने का भय. कुछ तो है जिसने उनकी आँखों के तेज को कम कर दिया है.
“यहाँ बैठो, मेरे चरणों के पास. अब बुढा हो चला हूँ. आँखें कभी भी बंद हो सकती हैं. मरने से पहले अपने अनुभवों को तुमसे बाँट लूँ, बस यही आखरी इक्षा है.”, बाबूजी ने मुझे अपने पास बिठाते हुए कहा.
बाबूजी फिर कहने लगे. तुम्हें पता है, आठवीं सदी के अंत में बौद्ध धर्म अपने चरम पर था. हिंदुस्तान में चरों तरह बौद्ध धर्म की पताका लहरा रही थी. बौद्ध धर्म की इस बढाती लोकप्रियता ने हिन्दुओं के मन को अशांत कर दिया था. लोग तो अब ये भी कहने लगे थे की हिन्दू धर्म का अंत निकट आ गया है. लेकिन हिन्दू धर्म तो सनातन है, हमेशा से है और हमेशा रहेगा. और इसी बात की पुष्टि के लिए शंकराचार्य धरती पर अवतरित हुए. हिन्दू धर्म एक प्रचार और प्रसार के लिए वो भारत भ्रमण पर निकले. कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक, बिहार से लेकर बंगाल तक, पुरे देश की यात्रा की उन्होंने और हिन्दू धर्म का प्रचार किया.
मैं उनकी बातें बहुत गौर से सुन रहा था. आज से पहले भी मेरे बाबूजी से मुझसे कई अनुभवों के बारे में बात की थी, लेकिन हिन्दू धर्म और उससे जुड़े मुद्दों पर आज पहली बार वो मुझसे बात कर रहे थे. मुझे लगा शायद वो मुझे हिन्दू धर्म के गूढ़ रहस्यों के बारे में या आदि गुरु शंकराचार्य के योगदान के बारे में कुछ बताएँगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. शंकराचार्य की यात्रा के कारणों पर से पर्दा हटाने के बाद वो उनके द्वारा की गयी एक यात्रा का वृतांत सुनाने लगे.
उन्होंने कहा, एक बार शंकराचार्य हिन्दू धर्म के प्रचार के अपने अभियान के दौरान, एक वन से गुजर रहे थे. शंकराचार्य के शिष्य उनके साथ-साथ चल रहे थे. शंकराचार्य के अनुयायी उनके मार्ग के कंकड़ और पथ्थरों को बहार कर मार्ग को उनके लिए सुगम बनाए में लगे हुए थे. लोगों से मिलते हुए और उन्हें हिन्दू धर्म की महत्ता को बताते हुए, शंकराचार्य अपने मार्ग पर, बिना रुके, बिना थके चलते जा रहे थे. उनके तेज और उनके ज्ञान ने लोगों के मन में उनके लिए अथाह प्रेम और सम्मान का संचार कर दिया था. उनके दर्शन हेतु लोग उनके मार्ग के दोनों तरफ हाथ जोड़े खड़े थे. उसी मार्ग पर लगभग एक कोस की दुरी पर एक अछूत लेता हुआ था. शंकराचार्य के शिष्य उसे देख कर चिंतित हो गए.
शंकराचार्य के मार्ग में अछूत, राम-राम, शंकराचार्य इस मार्ग से कैसे जायेंगे? बार-बार उस अछूत व्यक्ति को मार्ग से हटने के लिए कहते हुए वे शंकराचार्य के मार्ग से उस अछूत को उठाने का प्रयत्न करने लगे. लेकिन उस अछूत ने तो जैसे अपने प्राण ही उस मार्ग पर त्यागने का मन बना लिया था. शिष्यों की बातों की तरफ ध्यान दिए बिना, वह मार्ग पर ही लेटा रहा.
“दुष्ट, तुझे इस बात का ज़रा सा भी ज्ञान नहीं की शंकराचार्य के ऊपर अगर तुम्हारी छाया भी पद गयी तो उनका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा. यथाशिग्र मार्ग से उठ जाओ अन्यथा हमें बल प्रयोग करना पड़ेगा.”, शिष्यों ने एक साथ कहा.
मगर वो दुष्ट कहाँ उठने वाला था. ऐसा लगा जैसे उसने उनकी बातों को सुना ही नहीं. उसे तो बस अपने काम से मतलब है. कौन क्या कह रहा और क्या सुन रहा है, इससे उसे क्या वास्ता? वो अछूत नंग-धरंग, दीन-हीन, वहीँ पड़ा रहा, न हिला और न दुला. बस एकटक मार्ग को निहार रहा था. उसके आस-पास उपस्थित सभी व्यक्ति बड़े अचंभित थे. आखिर क्यूँ ऐसा कर रहा है ये दुष्ट?
तभी, अपने अनुयायियों संग शंकराचार्य वहां पधारे. शिष्यों ने शंकराचार्य को साड़ी स्थिति से अवगत कराया. शंकराचार्य क्रोधित हो अपने मार्ग को अवरुद्ध करने वाले दोषी की तरफ बढे. मस्तिष्क में असंख्य प्रश्नों को लिए शंकराचार्य आगे बढे. कौन हो सकता है? इसे क्या चाहिए? मेरा मार्ग क्यूँ अवरुद्ध कर रखा है इसने? कहीं मेरे विरुद्ध को षड़यंत्र तो नहीं? सोचते हुए उस अछूत के पास जाकर रुक गए. गौर से उसे देखा. किसी नीच जाती का लगता था. फटे-पुराने कपडे, शरीर से बाहर झांकती हड्डियाँ, चेहरे के अन्दर धंसी आँखें. मनुष्य ही है क्या ये?
“हे मानव, आप क्यूँ मेरे मार्ग में अवरोध बन रहे हैं? मुझसे कोई भूल हुई है क्या?”, शंकराचार्य ने नम्र स्वर में पूछा.
“मैं, मैं कहाँ अवरोध हूँ आपके मार्ग का. आप स्वयं अवरोध हैं. मुझे सोने के लिए स्वच्छ स्थान की तलाश थी, आपके शिष्यों ने इसे साफ़ किया. मुझमें इसे साफ़ करने का सामर्थ्य नहीं है, और आप ही तो कहते हैं, जिसका कोई नहीं उसके आप हैं. इसी बात पर भरोसा कर मैं यहाँ सो गया”
शंकराचार्य उसकी बातों को सुन अचंभित हो गए. देखने में नीच, लेकिन बातें क्यां और शिक्षा से भरी हुई. ये साधारण मनुष्य नहीं हो सकता.
“हे प्रभु, आप कौन हैं?”
“वही जो आप हैं. आप और मैं एक ही तो हैं. इस काया के अन्दर जो आत्मा है, वो एक ही तो है. एक रूप, एक रंग और एक स्वाभाव. हम अलग कहाँ हैं भगवन? बस शरीर, भ्रमित कर देने वाले शरीर ने आपको और मुझे भ्रमित कर रखा है. सनातन कल से मैं और आप एक ही तो हैं”
“सच कहा आपने. आप और मैं एक ही तो हैं. वेदों को बारम्बार पढ़कर भी उसके गूढ़ रहस्यों को अबतक नहीं जान पाया था मैं. आप का धन्यवाद.”, इतना कहकर शंकराचार्य ने उस व्यक्ति को गले लगा लिया. उसे अपने साथ ले वो अपने आगे की यात्रा की तरफ बढ़ गए.
इस घटना ने ही शंकराचार्य को अद्वैतवाद का ज्ञान दिया. यही वो समय था जब उन्होंने कहा इश्वर एक है, एक ब्रह्मण, और वो ब्रह्मण आपके अन्दर ही निवास करता है. अहम् ब्रह्मास्मि!
इतना कह कर बाबूजी रुक गए. फिर मेरी तरफ देखते हुए कहा. मनुष्य एक हैं. हर इन्सान एक है. हमेशा इस बात को याद रखना. तुम, मैं, हम सब एक हैं. ब्रह्म हैं हम. अहम् ब्रह्मास्मि. तुम्हें समझाने के लिए एक उदहारण दे दूँ. भारत की राजधानी दिल्ली. वहां पहुँचाने के कई रास्ते हैं. कोई मुरादाबाद होते हुए जाता है, कोई गोंडा होते हुए, कोई कलकत्ता होते हुए तो कोई मुंबई होते हुए, सबकी मंजिल तो एक ही है, दिल्ली. रास्स्ते अलग हैं, लेकिन हमारा चेतन मस्तिष्क इस बात को समझ नहीं पाता. मंजिल एक ही है रास्ते अलग हैं. इसी तरह इश्वर भी एक ही है, मान्यताएं अलग-अलग हैं.
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