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ये कैसी सजा दी है!

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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मौत भी आती नहीं मुझको ये कैसी सजा दी है,
रूठ कर बैठे है वो हमसे, ये कैसी रज़ा दी है,


हँसी मेरी तो अब जैसे, बस इक दिखावा है
हर हुस्न कि बारिश, लगती बस छलावा है


इश्क करने कि कसमें यहाँ हर शख्स खाता है,
मेरा ये दिल है जो, बस कसमें निभाता है


उसे भी फुर्सत होगी, वो भी कभी आएगी
मेरे जनाजे में खुशी के गीत गायेगी


तड़प कर फिर मेरा इश्क गुनगुनाएगा
मचलकर एक-बार फिर से दिल लगायेगा

गम ही था मुकद्दर तो, तो क्यूँ रंगीन फिजा दी है,
मेरे मालिक मुझे तुने, ये क्या जीने कि वजह दी है.

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