मैं कवि नहीं हूँ!
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लिखता हूँ कहानी अपने इश्क कि,
एक वो यहाँ भी है, एक मैं भी हूँ यहाँ
ना बात हुई ,ना मिलना ही हुआ
एक आग यहाँ भी है, और है धुंआ यहाँ
एक नाजुक सी कमसिन सी परी
और एक संगदिल था, सनम था
हुस्न थी और मोहब्बत था
और उसमे लोगों का सितम था
देखने कि उम्मीद में उसे
चले और चलते भी गए
मिले ना जी भर के कभी
ज़ख्म और दर्द मिलते भी गए
ना उसने उफ़ कि, ना मेरे ही लहू दिखे
फिर ऐसा भी मौसम आया,
जब दूर हम हुए,
गूंजी फिजा में आह उसकी
और सर्द हुई मेरी तनहा चीखें
चलता ही रहा मैं भी
और वो भी ना थम पायी
इश्क के रास्ते में,
ढलती सी शाम आयी
फिर सुबह कि तलाश में
वो भी चला और मैं भी,
मंजिल मिलेगी कब-तक
क्या वो मिल पायेगा कभी.
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