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हक़ की लड़ाई(लघु-कथा)

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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मुकरम, दंतेवाडा से सटा हुआ एक छोटा सा गाँव. बहुत खुशहाल तो नहीं, हाँ लोग आपस में मिलजुल कर जरुर रहते हैं. आज गाँव के सारे लोग ख़ुशी में झूम रहे थे , झूमें भी क्यूँ नहीं, गाँव की लाडली बन्नो का ब्याह जो था. बच्चे ख़ुशी से गा रहे थे, खेल रहे थे और औरतें बन्नो के ब्याह की तैयारी में जुटी थीं. सामने से हरदयाल, बन्नो का बाप, कंधे पर ब्याह के जरुरी सामान को लादे, मैले कुचैले कपड़ों में आया और सामान औरतों को दे, बारात की तैयारी के लिए छेदी को ढूंढने निकल गया. मैले-कुचैले कपड़ो में भी बेटी के ब्याह की ख़ुशी उसकी अंग-अंग से झलक रही थी, आँखें तो जैसे इसी दिन का इंतजार कर रही थी.

बहुत खुश था हरदयाल, होता भी क्यूँ नहीं, बेटी मांगलिक थी सो वर्षों बाद बेटी के लिए योग्य वर जो ढूंढ़ लाया था वो.

उधर हरदयाल के घर के अन्दर, जमुना, मंगली और राधा बन्नो को तैयार कर रही थी. शाम हो आया था. बारात कभी भी दरवाज़े पर आ खड़ी होती. बन्नो आज तो चाँद का टुकड़ा लग रही थी.

जमुना ने कहा… क्यूँ री बन्नो… आज तो हमारे दुल्हे राजा तुमका उठाई के लई जायेंगे…. आज हमरी बन्नो ससुराल चली जायेगी…

बन्नो का चेहरा जैसे.. दूध में थोडा सा सिंदूर मिला दिया हो.. शर्मा के एक तरफ सिमट गयी और आसमान को ताकने लगी.. शायद बाबु और माई से बिछड़ने के बारे में सोच रही थी… बाबु, जिसने बचपन से लेकर आजतक, पेट काटकर बन्नो को पढाया, लिखाया और इस काबिल बनाया की बन्नो टीचर बन सके… हाँ उसके बाबु ही तो थे जिसने उसे असमान में उड़ना सिखाया था… पन्तंगों को उड़ते देख बरबस बन्नो का मन भी पतंग बनने का करता था.. एक बार उसने बाबु से पूछ ही लिया… बाबु क्या मैं पतंग न बन सकत हूँ… हमहूँ उड़ना चाहत हैं…

हरदयाल बेटी की बातें सुन.. सोच में पड़ गया.. काहे नहीं बिटिया रानी. तुम्हरे लिए तो एक ठो हवाईजहाज खरीद लाऊंगा..

एकटक असमान को निहारती अपने खिड़की से.. बन्नो अपने ख्यालों में खोयी थी… तभी किसी आवाज़ ने उसे असमान से जमीन पर पटक दिया…

मंगली आँखों में आंसू लिए बोली.. रे बन्नो.. अब खेतन में पानी और रोटी कौन ले के जावेगा हमरे साथ… तुम्हरे बाबु का तो कलेजा फट गवा होगा…

का-का जतन किये तोहरे खातिर… तोहका टीचर बनाये.. मंगली होवे के कारण पिछले ६ बर्खन से तोहरी सादी नहीं हो रही थी… आज उका मनोरथ पूरा होई जावेगा…

मंगली की बातों को सुनते ही जैसे बन्नो बुत बन गयी… आँखों में आंसू तो आये लेकिन जुबान बंद रही…

तभी बाहर से हरदयाल की आवाज आई… आरी बन्नो की माई… सुनती हो बारात चल दिया है.. कछे देर में पहुँच जाएगा… हम दालान पर शामियाना लगवा दिए हैं.. भोजन पानी का व्यवस्था भी कर दिए हैं.. तुम खाली बन्नो को जल्दी तैयार करवा दो… मास्टर साहेब के हियाँ फ़ोन आया था…

इतना कह हरदयाल… चल दिया…

अभी आधा घंटा भी नहीं बीता था की चरों तरफ अफरा तफरी मच गयी… क्या हुआ… कब हुआ… हे भगवन… हरदयाल तो मर जावेगा.. इतने जतन से बन्नो की सादी ठीक किये रहा… अब क्या होगा…

तभी हरदयाल हांफता, घर पहुंचा… बोलने की कोशिश की उसने बन्नो की माँ से. लेकिन आवाज़ बाहर नहीं आई…. किसी तरह अपनी पूरी ताकत समेट उसने मुंह खोला… बन्नो की माई.. हमार तो करम ही फुट गया रे… बर्बाद होई गए हम… अभिये मास्टर बाबु के हियाँ फ़ोन आया था… एको ठो बाराती नहीं बचा…

उ नक्सलियों ने बरातियां वाली बस को बम से उड़ा दिया… दूल्हा के तो लाशो नहीं मिला… इतना कहते ही वो फुट-फुट कर रोने लगा….

रोते-रोते बन्नो के पास पहुंचा और बोला.. बन्नो बिटिया हमका माफ़ कर दो.. हम तुम्हारे लिए दूल्हा नहीं ढूंढ़ पाए… अब तो हमका ई बात की चिंता खाए जा रही है की उ जल्लादन के नरसंहार का बदला समाज तोहरे से लेगा… हम जानत हैं, तुम में कोइ खोट नाहीं… लेकिन समाज तो तोहका मंगली मानत है…

बाबु को बिलखते देख बन्नो कैसे चुप रहती… बाबु हम बुझ सकत हैं तोहरी दसा… अब ता तोहरा बिस्वास हो गया न की ई नक्सली हमरे और तुम्हारे हक़ के लिए नहीं अपने हक़ के लिए लड़ रहे हैं… जब अपनों का खून इका पानी लगत है.. तो क्या ख़ाक हक़ की लड़ाई लड़ेंगे…

एक दुसरे को टकटक देखते और बिना कुछ बोले दोनों बुत की तरह खरे थे… लेकिन इस घटना ने कई तरह के सवाल खड़े कर दिए… हक़ की लड़ाई…

मासूमों की जान क्यूँ जाए इसमें.. और वो कहते हैं वो शांति के लिए लड़ रहे हैं…..

इससे बड़ा मजाक शायद ही कुछ हो इस दुनिया में…

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