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राजनीति में फंस गया राष्ट्रगान

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भारत का राष्ट्रगान जन-गण-मन को जब रविंद्र नाथ टैगोर ने इसकी रचना की होगी तो यह उनके दिमाग में बिल्कुल नहीं आया होगा कि मेरे द्वारा लिखित यह गान एक दिन सुप्रीमकोर्ट का चक्कर लगाएगा। 27 दिसम्बर 1911 को सर्व प्रथम कांग्रेस के अधिवेशन में जन-गण-मन को गाया गया था यह बंगाली भाषा के साथ ही हिंदी भाषा में भी उपलब्ध है,इसको लिखने वाले रविंद्रनाथ टैगोर है जो पश्चिम बंगाल से ही ताल्लुक रखते है। इस गीत को राष्ट्रगान के रूप में 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के द्वारा मान्यता दी गयी थी, तभी से यह हर भारतीय के लिए एक गौरव बना हुआ है। यह राष्ट्रगान हर सच्चे भारतीय के लिए है जो भारत में विश्वास रखते है।इस राष्ट्रगान का यह कतई मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि यह नागरिकों के लिए बोझ है यह बिल्कुल स्वैच्छिक है जिसका मन हो वह गाये या न गाये, यह आप पर निर्भर करता है क्योंकि देशभक्ति मार्किट से खरीदने की चीज नहीं है जो खरीद कर लाई जा सके, देशभक्ति हर मनुष्य में दिल से होनी चाहिए और जो दिल से देशभक्ति नहीं कर सकता उसको राष्ट्रगान से क्या मतलब? आज के समय में जिस प्रकार की दूषित राजनीति चल रही है जहां कुछ लोग भारत तेरे टुकड़े होंगे कहने वाले पैदा हो गए है तो उनसे हम राष्ट्रगान गाने की उम्मीद कैसे करें? लेकिन इसी देशभक्ति को जीवित रखने के लिए ही सुप्रीमकोर्ट ने 30 नवंबर,2016 सिनेमाघरों में शो शुरू होने के पहले ही राष्ट्रगान गाना और पर्दे पर भारतीय तिरंगा को लहराते दिखाना अनिवार्य कर दिया था और इस समय शो देखने वालों को खड़ा होना जरूरी कर दिया गया था। तब इस नियम का कुछ अफजलप्रेमी गैंग के लोगों ने विरोध भी किया था जिसके कारण कोर्ट ने अपने नियम में बदलाव करते हुए इसे स्वैच्छिक कर दिया। अब सिनेमाघरों में जरूरी नही है कि शो शुरू होने के पहले राष्ट्रगान गाया जाय लेकिन आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या हम राष्ट्र के लिए 52 सेकंड का समय भी नहीं दे सकते? क्या हमारे अंदर का दिल इतना निष्ठुर हो गया है कि राष्ट्रगान भी बेकार लगने लगा है या फिर हमारे कान इतने कमजोर हो गए है कि इनको राष्ट्रगान सुनने की क्षमता नहीं रह गयी, ये देश में क्या हो रहा है कि लोग 52 सेकंड के इस गान को गाने में भी शर्म महसूस कर रहे है। *****************************************नीरज कुमार पाठक आईसीएआई नोएडा

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