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कांग्रेस की मजबूरी

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2 अप्रैल 2018 को एससी/एसटी एक्ट के विरोध स्वरूप कुछ लोगों के द्वारा भारत बंद के दौरान की गई हिंसा और आगजनी, के लिए जिम्मेदार लोगों को निर्दोष बताकर मुकदमा वापस लेना भी वोट की राजनीति का एक अभिन्न हिस्सा है, वोट लेने के लिए दोषियों को भी बचाना पार्टियों की अपनी मजबूरी है जिसके ही मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में बसपा सुप्रीमो मायावती ने कांग्रेस की सरकारों पर दबाव बनाया है कि उस समय जितने भी मुकदमे रजिस्टर्ड है उनको वापस ले लिया जाय और अगर ऐसा नहीं करते है तो समर्थन वापस हो सकता है अब जब समर्थन की बात आती है तो जाहिर सी बात है सरकारों को मायावती बात माननी पड़ेगी और यही कारण है कि कांग्रेस की मजबूरी इतनी है बिना हाथी के सहारे पंजे का रहना सुखद नहीं होगा। बसपा और सपा के बिना सरकार खड़ी नहीं रह सकती और अगर प्रदेश में खड़ा रहना है तो इन सहयोगी पार्टी की घुड़कियों को सुनना पड़ेगा। सरकार कोई भी हो जब तक वह पूर्ण बहुमत से नहीं बनती तब तक उसको कहीं न कहीं सहयोगी की घुड़की सुननी ही पड़ती है।

अब यह घुड़की चाहे सपा सुप्रीमो की हो या फिर बसपा सुप्रीमो। सरकार अपने बूते पर ही सही होती है जिससे कि बिना बाधा के कोई भी कार्य आसानी से किया जा सके लेकिन कांग्रेस की मजबूरी है कि उसके पास पूर्ण बहुमत नहीं है, जिससे कारण उसको घुड़की सुननी ही पड़ेगी। जिस प्रकार से भारत बंद के दौरान भारी पैमाने पर हिंसा और आगजनी की गई थी इससे तो जो भी दोषी है उनको माफी का सवाल उठाना ही नाजायज है। किसी भी व्यक्ति को कानून अपने हाथ में लेने का कोई अधिकार नहीं है लेकिन जिस तरह से भाजपा शासित राज्यों में हिंसा फैलाई गई यह बिल्कुल राजनीतिक था और इसकी जांच होनी चाहिए और जो दोषी हो उसको सजा मिलनी चाहिए। अगर इनको दोषमुक्त कर दिया गया तो इनका मनोबल बढेगा जो देश और समाज के लिए बहुत घातक होगा। इस हिंसा का दर्द सिर्फ वही बता सकते है जिनके परिवार का कोई भी सदस्य इस हिंसा का शिकार हुआ होगा, उस दर्द का एहसास राजनीतिक नेता नहीं बता सकते वो केवल इतना जानते है कि हमको सिर्फ वोट लेना है चाहे जिस भी प्रकार से हो।

-नीरज कुमार पाठक आईसीएआई नोएडा

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