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फाइलों के बोझ तले न्यायालय

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अगर हम पहले के समय में जाकर देखें तो हम यह देखेंगे कि लोग उस समय गांव के अंदर छोटे-मोटे मामलों का निस्तारण बड़े-बुजुर्ग और  बुद्धजीवी लोगों को बुलाकर पेड़ की छाया में चारपाई पर बैठ कर बड़े आसानी से समस्या का हल निकाल लेते थे एवं अपने हिसाब से दोषी पक्ष पर कुछ जुर्माना लगा देते थे, उस जुर्माने की राशि को पीड़ित पक्ष को ही दे दिया जाता , लेकिन जल्दी कोई मुक़दमे के चक्कर में नही रहता था, और  जिससे कोर्ट में मुकदमों की संख्या में बृद्धि नहीं होने पाती, कोर्ट के संज्ञान मे मामले को आने ही नही देते थे। लेकिन आज के समय की कालचक्र में मनुष्य इस कदर उलझ कर अपने बंशजो के इस परिपाटी का परित्याग करके अपने स्वाभिमानी अहं के रास्ते को चुन लिया है ,वह रास्ता जो आज न्यायालय के रूप मे जाना जाता है। मनुष्य अपने झूठे अहं मे फंसकर सालो साल मुकदमे बाजी की चक्की मे पिसता जा रहा है। मुकदमे की तारीख देखते-देखते एक दिन वह व्यक्ति हमेशा के लिए खुद तारीख बन जाता है, फिर भी फैसले नही आते, आज लोग छोटी-छोटी बातों को भी प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखने लगते है और उसके बाद न्यायालय मे न्याय के लिए पहुँच जाते है, जिसके कारण कोर्ट में भी लंबित केसों की संख्या में काफी बृद्धि हो जाती है जिसके कारण ही फैसला आने में कई वर्ष लग जाते है, बहुत से केसों में तो वादी, प्रतिवादी की मौत भी हो जाती है और न्यायालय से न्याय नहीं मिल पाता,इसलिए वे लोग जो छोटी-छोटी बातों को लेकर कोर्ट के तरफ का रुख कर लेते है उनको एक बार मिल-बैठ कर आपस में जरूर बात करनी चाहिये,बैठ कर बात करने से भी समस्या का हल निकल सकता है, ऐसा भी नही है कि हर मामले को न्यायालय में न्यायाधीश के द्वारा ही सुलझाया जाय।आज अगर लोग छोटे केसों को अपने स्तर पर सुलझा लेते तो न्यायलय आज मुकदमों की फाइल के बोझ तले न्यायलय कराहता नहीं, आज मुकदमों की संख्या इस कदर बढ़ती जा रही है कि न्यायाधीश तक चिंतित रहते है कि इस समस्या का हल क्या हो सकता है , कैसे कम हो सकता है मुकदमों का बोझ।।                                                                  *****************************************नीरज कुमार पाठक                     नोयडा

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