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अगर सेना है चाहे किसी भी देश की हो तो वह कभी भी नहीं चाहेगा कि उसको लेकर किसी भी प्रकार से कोई राजनीति करे, लेकिन आज के राजनीतिक परिदृश्य में सेना को ऐसा सुनने को मिल रहा है, जिसमें उनके सर्वोच्च बलिदान का राजनीतिकरण किया जा रहा है, वो भी इस देश के कर्णधार कहे जाने वाले राजनेताओं के द्वारा, जबकि कोई भी सेना हो कहीं की सेना हो उसका सिर्फ एक ही धर्म होता है और वह होता है अपने मातृभूमि की रक्षा करना।
इसी मातृभूमि की रक्षा करने में हर जवान अपना सर्वोच्च बलिदान देता है या देने की कोशिश करता है. उसको कोई भी परवाह नहीं होता कि मैं शहीद हो जाऊंगा। सेना का हर जवान सिर्फ भारतमाता का सच्चा सिपाही होता है, न तो उसका कोई मजहब होता है और न ही कोई जाति। मगर राजनेता लोगों को सेना में भी धर्म नजर आता है।
ये तो सच्चाई है कि अगर जिस दिन सेना के अंदर ऐसी भावना आ गयी कि मैं फलां जाति या धर्म से हूं, तो यह देश के लिए तो घातक होगा ही, सेना के लिए भी सही नहीं कहा जा सकता है, जिसका असर यह पड़ेगा कि वह देश की रक्षा करने में अपने को असमर्थ पायेगा। लेकिन सत्य तो यह है कि हमारे जवानों के मन- मस्तिष्क में ऐसा विचार भले न आये लेकिन देश के राजनेताओं के दिमाग में जरूर आ जाता है कि सेना में भी धर्म होता है।
जिस प्रकार से हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने सेना के बलिदान को धर्म के साथ जोड़कर देखा, यह बहुत ही छोटी सोच का नमूना कहा जा सकता है, यह सेना के राष्ट्रधर्म में सीधे दखलंदाजी कही जा सकती है। जबकि अगर देखा जाय तो सेना का हर सैनिक एक ही वर्दी से सुसज्जित होता है, एक ही प्रकार का भोजन करता है, एक ही प्रकार का वेतन सभी जवानों को दिया जाता है।
सब एक होते हुए भी अगर ओवैसी जैसे राजनीतिक लोगों को इसमें खोट नजर आती है, तो यह बिल्कुल ही राजनीति से प्रेरित कहा जा सकता है या फिर राजनीति को धार देने के लिए भी कहा जा सकता है। एक राजनीतिज्ञ को ऐसा करना कहीं से भी शोभा नहीं देता। एक राजनीतिज्ञ अपनी राजनीति में कितना नीचे गिर सकता है, इसका एक उदाहरण ओवैसी के द्वारा दिया गया, लेकिन एक बात समझ से परे है कि ऐसे लोग इस प्रकार का दोहरा मापदंड क्यों अपनाते हैं? आखिर ओवैसी सेना के जवानों को धर्म के तराजू पर तौल कर क्या साबित करना चाहते हैं?
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