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यूँ ही योजना बनाते बनाते ये कहाँ आ गए हम यूँ ही योजना बनाते बनाते। स्कूल के दिनों में हम सब पढ़ाई की योजना अवश्य बनाते थे । पर ये मंगलवार से आगे नहीं बढ़ा करती थी। अगली बार उसी में हेर फेर के बाद अगले सोमवार से पुनः लागु हो जाता था । किन्तु , उसके भी परिणाम कुछ चौकाने वाले नहीं होते थे । यही हाल पहली जनवरी को ली जाने वाली शपथ और योजनाओं का होता था जो अपने पहले ही सप्ताह में इतिहास बन जाया करती थी । इससे और कोई उपलब्धि हो न हो पर योजना बनाने के कार्य में हमारा अभ्यास पक्का हो जाता है। बात व्यक्तिगत स्तर पर रूक जाती तो देश इस रोग से बच जाता । हम सब ने मिल कर इसे राष्ट्रीय स्तर पर ले आया है । चूकिं हम नियोजित अर्थव्यवस्था तो योजना बनाने का अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाता है । हमारी सरकार हर स्तर पर हर अवधि और हर ज्ञात प्रकार के योजना बनाने को प्रयासरत रहती है । आने जाने वाली सभी सरकारें ऐसा करती है । सरकार अपनी अंतिम सांसें क्यों न गिन रही हो, मौका नहीं चूकती । शायद कोई बाज़ी पलटने वाली योजना हाथ लग जाये। दुसरे शब्दों में गेम चेंजर । सवाल योजना के पीछे नियत पर नहीं है । जब हम सब पढ़ाई के लिए योजना बनाते थे तो भी नियत नेक था, और जब लोगो के भोजन के लिए बना है तब भी । हमारी आदत है हम इसे बना कर इसी पर सुस्ताने बैठ जाते है । और रही सही क़सर बाबुओं की नफासत वाली अंग्रेजी में नियमों की तकनीकि व्याख्या पूरी कर देती है। इस बीच यह चमत्कार भी देखने को मिलता है कि दबी फाइलों से योजना का पैसा बह कर बाहर निकल आता है । यह बह कर कहाँ जाता है बताना मुश्किल है पर यह पानी के सिद्धांत पर नीचे कि ओर नहीं चलता । यह अमीरों को और अमीर बना देता है । मंदी के इस दौर में भी योजनाओं का उत्पादन दर बहुत उच्च है। इनका बफर स्टाक भी हमारे पास मजबूत स्तिथि में है। इसके अलावा विरोधी सरकारों द्वारा परस्पर रद्द की गयी योजनाओं का अम्बार है। आशंका है कि इस अतिरेक की निर्यात के लिए योजना बनाने की नौबत ना आ जाये। अतः अच्छा तो यह होगा कि कम ही योजना हो पर उनपर टिके रहें और उनके लक्ष्य तक चलते रहें। निरेन
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