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प्राण दाता या प्राण हरता ?

chandravilla
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डाक्टर साहब मेरे अमुक (पति,बच्चा भाई ,पिता माँ या कोई प्रिय जन) को बचा लो हम आपका अहसान आजीवन नहीं भूलेंगें.,इसी प्रकार डाक्टर के साम,ने रोना,गिडगिडाना किसी भी नाटक, पिक्चर का आम दृश्य है,.उसके बाद चिकित्सक द्वारा कहा जाना “हम भगवन तो नहीं पर हम इनको बचाने की पूरी कोशिश करेंगे”
वास्तविक जिन्दगी में भी एक रोगी या उसके परिवार जनों के लिए चिकित्सक भगवान ही होता है.यदि कोई प्रियजन रोगाक्रांत हो अस्पताल में है तो उसके परिवारजन उस समय ईश्वर या चिकित्सक की शरणागत होते हैं.भगवान को तो मन ही मन स्मरण किया जाता है परन्तु चिकित्सक के हाथ में ही जीवन डोर दिखाई देती है.
अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात या अपना कार्यभार ग्रहण करते समय सभी क्षेत्रों में अपने कार्य की पवित्रता बनाये रखने के लिए शपथ ग्रहण की जाती है.इसी प्रकार डॉक्टर्स भी जो शपथ ग्रहण करते थे उसको हिप्पोक्रेटस शपथ कहा जाता है.ये शपथ अति प्राचीन होने के कारण इसका नया प्रारूप २००३ में डॉ. लियो रेबेलो द्वारा प्रस्तुत किया गया जो समय व आवश्यकता के अनुसार इसका संशोधित स्वरुप है १ जुलाई को डॉक्टर्स दिवस विश्व में मनाया जाता है.. इस शपथ के अनुसार;
कोई भी चिकित्सक किसी भी रोगी को न तो अतिरिक्त ओषधी देगा.,न ही अनावश्यक टेस्ट आदि कराएगा.मरीज से कोई भी अतिरिक्त धन या उपहार आदि नहीं लेगा,डॉक्टर्स बच्चों को भी अनावश्यक इंजेक्शन आदि नहीं देंगें,कोई भी रिपोर्ट आदि अपने अनुसार प्रभावित नहीं करवाएंगे. किसी भी रोगी को अनुचित परामर्ष आदि नहीं देंगें तथा आवश्यकता अनुसार अन्य चिकित्सा पद्धति प्रयोग से परामर्श लेने को भी कह सकते हैं.इसी प्रकार समय समय पर अपने चिकित्सकीय ज्ञान को अध्ययन तथा सेमिनार्स आदि में भाग लेकर अपडेट रखने की बात कही गयी है.
ong><strong परन्तु वर्तमान में जो कारनामे डॉक्टर्स के देखनेमें आ रहे हैं तो लगता है उन्होंने एक ही बीड़ा उठाया है कैसे शपथ के सारे प्रावधानों का मखौल उड़ाया जाए.
किसी ने कहा है बीमारी या मुसीबत पूछ कर नहीं आती.आखिर वो हमारी अनुमति की मोहताज तो है नहीं.प्रतिवर्ष कोई न कोई महामारी नए व भयंकर रूप में काल का ग्रास बनाने को तैयार रहती है .अभी डेंगू का कहर चल रहा है.निजी अस्पतालों में मरीज भर्ती के लिए स्थान ही नहीं.एक फुट की बेंच पर २-२ मरीजों को लिटा कर ड्रिप लगाई जा रही थी,जब वो व्यवस्था भी नहीं बची तो जमीन पर ही मरीजों को लिटाया जा रहा था. ये हालात तो हैं निजी अस्पतालों के और सरकारी में या तो कोई बेचारा किस्मत का मारा जाने को तैयार नहीं चला गया तो वहां की स्तिथी पर चर्चा करना ही व्यर्थ.
डॉक्टर्स,केमिस्ट्स तथा पेथोलोजी लेब्स का गठजोड़ रोगी तथा परिवारजनों को कंगाल बनाने के लिए पर्याप्त .प्रतिदिन अनावश्यक रूप से डॉक्टर द्वारा संस्तुती की गयी लेब से टेस्ट करना आपकी विवशता है.लेब्स रिपोर्ट वो देते हैं जो डॉक्टर्स दिलवाते हैं. उसके बाद रोगी के शरीर पर नए नए प्रयोग.रोगी के प्राण रहते हैं डॉक्टर्स द्वारा नियुक्त अप्रशिक्षित स्टाफ के हाथों में .और आप पैसा पानी की तरह बहा कर भी मात्र मूक दर्शक बने रह सकते हैं. ये सारा दृश्य आज कल का ही है.
सच ये सब देख कर सर पकड़ कर बैठने को विवश होना पड़ता है.नहीं होती कोई कार्यवाही.किसी रोगी की मृत्यु हो जाने पर थोड़े दिन हंगामा होता है,फिर सब शांत.
आज चिकित्सा के क्षेत्र में हमारा देश आगे बढा है,जिस पर हम गौरवान्वित अनुभव कर सकते हैं,परन्तु भारत मात्र महानगरों में नहीं, बसता है ग्रामीण क्षेत्रों में.वहां तो अस्पतालों का ही अकाल,अस्पताल हैं भी तो डॉक्टर्स या सुविधाएँ शून्य ,ऊपर जो स्तिथी वर्णित है वो तो शहर की है.
क्या डॉक्टर्स मानवता के प्राणदाता के स्थान पर प्राणहरता बनते जा रहे हैं. .कहाँ जा रहे है हम?आये दिन बड़े से बड़े अस्पतालों में गलत आपरेशन कर डालना सामान्य होता जा रहा है.

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