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मूषक आहार के रूप में ! (क्या नर सेवा नारायण सेवा वास्तव में है)

chandravilla
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कौन बनेगा करोड़पति में रविवार को जो जानकारी मिली ,उसको देख कर मन बहुत द्रवित हुआ .२१ वी सदी में विकासशील कहे जाने वाले हमारे देश में आज भी ये परिदृश्य विद्यमान हैं,ज्ञात हुआ (ये मेरी अज्ञानता ही है जो मुझको अद्यतन ये ज्ञात नहीं था)
अधिकांश लोगों ने ये एपिसोड अवश्य देखी  होगी  जिसमें मुसहर जाति से  किसी मनोज नामक प्रतिभागी को  बुलाया गया था  . अभिनेता मनोज बाजपेयी के माध्यम से उस महादलित जाति  की  सहायतार्थ संभवतः ये आयोजन था.परन्तु जो  उस दिन पता चला वो वास्तव में  बहुत ही ह्रदय द्रावक था और उस विषय में और जानकारी प्राप्त कर आप लोगों से शेयर कर रही हूँ………

CHHOHE
मुसहर एक महादलित कही जाने वाली जाति है,जिसका नाम मुसहर पड़ने का कारण है उनका आहार  मूषक होना.  .ज्ञात हुआ कि खेतों से फसल कटने तथा खेत खाली होने के पश्चात  वहाँ  से  बचे खुचे  अन्न के दाने एकत्र करना तथा जो दाने चूहें घसीट कर अपने बिलों में ले जाते हैं,उन दानों को निकाल कर तथा चूहों को ही  अपने भोजन बनाना  जैसे कार्य ये आज भी करने को विवश हैं.   बिहार तथा बिहार की सीमा पर उत्तरप्रदेश के कुछ भागों के निवासी यह  भारतीय समुदाय अछूत के रूप में जाना जाता  है,इन लोगों का  जीवन स्तर आज भी सभ्यता की सीढ़ी पर सबसे नीचे  है.तुलनात्मक रूप से विचार करने पर  तो यह समुदाय ग्रामीण होते हुए भी  जन जातियों की स्थिति में जीवनयापन को विवश है. आजीविका के रूप में ईंधन के रूप में प्रयोग होने वाली लकडियाँ बीन कर लाना और  और वृक्षों के  पत्ते इकठ्ठा कर उससे पत्तल व दोना बनाना ही  प्रधान साधन है. कुछ मुसहर मधुमक्खी के  छत्ते तोड़ कर मधु एकत्र कर उसको बेचते हैं. हैं वर्तमान में ईंट भट्टों पर मजदूरी  और गाँव के सनाढ्य लोगों  खेतों में काम करते हैं.   इन सब कामों को करना अनुचित नहीं परन्तु  सबसे बड़ी विडम्बना तो ये  है कि  इन्हें मिलने वाली मजदूरी  नकद रुपये में न होकर अधिकांशतः अनाजों में होती है एवं यदि किसी आवश्यकता के लिए सनाढ्य लोगों से धन ले लिया (जो प्राय सबको ही लेना पड़ता है ) तो  बंधुआ मजदूर के रूप में इनकी और इनकी आगामी पीढ़ियों की जिंदगी व्यतीत होती है .

आज जब अस्पृश्यता को अपराध माना गया है तब भी उत्तर प्रदेश के  कुछ गांवों में दलित बस्ती से भी पृथक मुसहरों की बस्ती होती है. समाज से एक दम अलग.  यहाँ तक कि  इनके ग्रामों  में जिनको  सर्वथा अस्पृश्य माना जाता है वो भी स्वयम के लिए इनको अस्पृश्य मानते हैं.   इनकी बस्ती या तो ग्राम समाज को भूमि पर होती है जो की बंजर जमीन होती है या फिर गाँव के बाहर किसी सार्वजनिक छोटे से तालाब  के समीप  होती है और  आवास केवल कहने के लिए तथा सरकारी खानापूर्ति के लिए ही है. यथार्थ में  घास फूस की टूटी हुई केवल झोपडिया होती है, जिसमें  इनलोगों को चौपायों की भांति   रेंगते हुए  ही  आनाजाना पड़ता है.झोपडियां की ऊंचाई  भी इतनी कम जिसमें किसी छोटे बच्चे के अतिरिक्त शेष सदस्यों के लिए सीधे खड़े होना भी असंभव ही है.इनकी सम्पत्ति बस टूटे  कुछ टूटे और पिचके हुए अल्युमुनियम  के बर्तन, कुछ पुराने फटे  कपडे को जोड़ कर हाथ से  बनाये गए बिस्तर  और कुछ जोड़ी कपड़े. उपलब्ध जानकारी के अनुसार अधिकांश लोगों को  तो नए वस्त्र भी ऋण आदि लेकर विवाह के समय या मृत्यु के बाद ही मिलते हैं.

MOOSHAR 2

शिक्षा की यदि बात की जाय तो सरकारी आंकड़ों के अनुसार यहाँ साक्षरता अनुपात बस 2%है.  सर्व शिक्षा अभियान की खानापूर्ति के चलते  मुसहरों के बच्चो का नाम गाँव की प्राथमिक पाठशाला में पंजीकृत भले ही हों  लेकिन उनमें से संभवतः 20 %से भी कम बच्चे स्कूल जाते हैं.कौन बनेगा करोडपति  के द्वारा मिली जानकारी के अनुसार किन्ही सज्जन ने इनके बिहार के ही ग्राम में कोई आवासीय  विद्यालय प्रारम्भ किया है,जहाँ कुछ बच्चे शिक्षा प्राप्त कर पार रहे हैं. अधिकांश बच्चे आज भी पेट पालने के लिए  अपने माँ-बाप का सहयोग करते हैं. मुसहरों में यौन अनुपात, बाल मृत्यु दर, शिशु मृत्युदर, प्रसव के समय माताओं की  मृत्यु दर तुलनात्मक रूप से अधिक है.जो स्वाभाविक है.

अन्त्योदय योजना के अंतर्गत सबको अन्न या शेष सुविधा मिलने के कार्ड  या बी पी एल  अशिक्षा और साधन हीनता के चलते तथा भ्रष्टाचार के चलते  इनके बन नहीं पाते और यदि बन भी गए तो इनके पास इतना धन होता ही नहीं कि कि महीने में कभी कभी  खुलने वाले अन्न केन्दों से खाद्यसामग्री क्रय कर सकें .,

मनोरंजन  या लोक संस्कृति  के नाम पर  त्योहारों, शादी व अन्य ख़ुशी के मौके पर इनके समुदाय में  कहरंवा नृत्य किया जाता है. इस नृत्य में पुरुष महिलाओं के वस्त्र पहन कर प्रहसन करते हुए नृत्य करते है और साथ में अपने पारंपरिक वाध्य यंत्रों को  बजाते हुए स्थानीय बोली में गीत गाते है. यह एक तरह का समूह नृत्य है अन्य कबायली  समुदायों के लोक नृत्यों की भांति ही है, इनके वाद्य यन्त्र भी ढोलक, मजीरे, करताल और घर के बर्तनडिब्बों ,टूटे कनस्तरों आदि ही   होते है ,जिनको बजाकर व नृत्य आदि के द्वारा ये  आनन्दित  होते हैं.

धन,शिक्षा का अभाव और समाज से कटे रहना इनका जीवन है,जिसके कारण इनके जीवन में सुख नगण्य और दुखों का पहाड़ रहता है.वैसे भी पेट की भूख शांत करना तो प्रथम प्राथमिकता है,जिसकी चिंता या जोड़तोड़ में इनका जीवन बीत जाता है

अभावग्रस्त जीवन के चलते तथा स्त्रीपुरुष अनुपात में अंतर होने के कारण  जनगणना के अनुसार भी इनके समुदाय में 50%से अधिक लोग अविवाहित ही हैं.

इनपर अत्याचार गाँव के सनाढ्य लोग तो करते ही हैं जो इनसे बलात अकरणीय कार्य इनकी विवशता का लाभ उठाते हुए करवाते हैं,प्रशासन भी इनको प्रताडित  करता है, पुलिस भी इनसे घृणित कार्य करवाती है ,डंडे के जोर से फिर वो चाहे सड़ी गली लाश फिकवाना हो ,सरकारी शौचालय साफ़ करवाना या अन्य अकरणीय बेगार.ये हिंदू धर्म को ही मानते हैं हाँ देवी देवताओं को भिन्न स्वरूप में मानते हैं.

ये तो अभिशप्त जीवन है उस मुसहर  जाति  का जो हमारे जैसे ही मानव हैं, न जाने देश के कोने कोने में ऐसे कितने ही लोग ऐसे जीवन को जीने के लिए विवश है, और ऐसा जीवन यही मुसहर  नहीं देश के कोने कोने में लोग बिता रहे हैं .क्या यही हमारा  सर्वश्रेष्ठ कहा जाने वाला मानवजीवन है,जिसके लिए देवता भी तरसते हैं. एक ओर अन्न की बर्बादी और दूसरी ओर अन्न के एक एक दाने को तरसते तथा पेट भरने के लिए चूहें खाने को विवश हमारे ही लोग.किस किसको धिक्कारा जाय,सरकारी व्यवस्था को, क्या उनके लिए ये वोट बैंक नहीं ,या इनके वोट दलालों के माध्यम से ही खरीद लिए जाते हैं ?उन संगठनों को जिन्होंने अपने ऐसे भाईयों की कभी सुध नहीं ली .एक ओर कहा जाता है कि कोई भी  व्यक्ति या वस्तु  निरर्थक नहीं होती और दूसरी ओर हमने अपने ही बंधुओं को इस कगार पर पहुंचा रखा है.उनको शिक्षित कर रोजगार की व्यवस्था कर क्या उनका उपयोग देश निर्माण में नहीं हो सकता ,यही लोग जब अपराधों से जुडकर अपने देशवासियों के लिए ही संकट खड़ा करते हैं तो इनको कोसा जाता है तब इनसे अपना बचाव करने तथा इनको रोकने के लिए तो करोड़ों रुपया बर्बाद किया जा सकता है,परन्तु इनकी क्षमताओं का सदुपयोग स्वदेश हित और विकास में क्यों नहीं.वी आई पीज़ के सैर सपाटों,स्वदेश में व्यवस्था होते हुए विदेशों में उनके महंगें उपचारों उनकी सुख-सुविधाओं पर पैसा लुट सकता है परन्तु इन कार्यों के लिए धनाभाव आड़े आता  है.


कहा जाता है नर सेवा -नारायण सेवा तो इन  दरिद्र ,दलित नारायणों की स्थिति में सुधार कब होगा?

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