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शिवाजी……….. देश की अमूल्य निधि

chandravilla
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Shivaji शिवाजी के जीवन से सम्बद्ध लगभग सभी प्रसंग प्रेरणा दायी व आदर्श हैं.उनके विषय में लिखने पर तो सम्पूर्ण पुस्तक भी कम है.छोटा सा प्रयास अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए लिखना चाह रही थी परन्तु आलेख लम्बा हो गया.
एक बहुत पूर्व पढ़ा हुआ प्रेरक प्रसंग आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ जो कभी पढ़ा तो था जब मैं स्वयं ५ वी कक्षा में थी परन्तु आज तक वो प्रसंग मेरे स्मृति पटल पर अंकित है .
छत्रपति शिवा जी महाराज के जीवन से सबंधित ये प्रसंग इतिहास में एक आदर्श घटना है. जब शिवाजी ने कल्याण दुर्ग पर विजय प्राप्त की और उनके सेनापति आवाजी सोनदेव ने कल्याण के परास्त मुस्लिम सूबेदार की अति सुन्दरी पुत्रवधू गौहर बानू को बंदी बनाकर उनकी सेवा में प्रस्तुत किया क्योंकि तत्कालीन परंपरा के अनुसार विजेता का अधिकार विजित की महिलाओं पर होता था. .गौहर बानू अप्रतिम सुन्दरी थी शिवा जी ने अपनी व अपने सूबेदार सोनदेव की ओर से उनसे क्षमा माँगी और कहा की, काश मेरी माँ भी आपकी तरह सुन्दर होती तो मैं भी इतना ही सुन्दर होता.उन्होंने उनको मुक्त कराकर ससम्मान उनके परिवार के पास भेज दिया.
ऐसे आदर्श आपको भारतीय संस्कृति में ही मिल सकते हैं.शिवाजी जिनको उनकी वीरांगना माँ जीजाबाई , दादाजी कोनदेव ,समर्थ गुरु रामदास सदृश महानुभावों ने संस्कारित किया था.
भारतवर्ष की समृद्ध हिन्दू सत्ता का पारस्परिक विद्वेषों,फूट व स्वार्थों के कारण ११९३ के लगभग तक पतन हो चुका था. गुलाम वंश, लोधी वंश सैय्यद वंश,खिलजी और फिर तुगलक वंश के सल्तनत काल में भारत में धनदौलत तो लूटी ही हिन्दुओं पर अत्याचार किये थे.और फिर मुग़ल काल में औरंगजेब जैसे कट्टर मुस्लिम शासक ने अपनी धर्मान्धता का प्रदर्शन करते हुए सभी सीमाओं का अतिक्रमण कर दिया था मुस्लिम शासकों ने .सम्पूर्ण उत्तर भारत को अपने आधिपत्य में लेने के पश्चात दक्षिण के देवगिरी ,वारंगल,चोल पांडे आदि राजाओं का अंत कर उनके राज्यों पर अपना अधिकार कर लिया था.ये मुस्लिम शासक हिन्दुओं के विरुद्ध अत्याचारों का मोर्चा खोले हुए थे,उन पर जजिया लगाया गया ,उनको मुस्लिम बनाना, मंदिर तोडना अन्य विभिन्न कर आदि थोप दिए थे.भारतीय जनता निरीह बन चुकी थी और उनके पास ऐसा कोई नेतृत्व नहीं था जो इनकी शक्ति को टक्कर देता .प्रमुख भारतीय राजा जय सिंह,मान सिंह,जसवंत सिंह सदृश वीर राजा , टोडरमल, बीरबल जैसे बुद्धिजीवी सबने परिस्थितियों के साथ समझौता करते हुए देश की स्वतंत्रता के विषय में सोचना ही छोड़ दिया था,जनता को तो कोई राह नेतृत्व के अभाव में सूझती ही नहीं थी.
ऐसे अंधकारमय परिदृश्य में,सर्वथा विपरीत परिस्थितियों में, वीर शिवाजी का अवतरण हुआ.उनकी माता जीजाबाई उनको देवी माँ की कृपा ही मानती थी. उनके पिता शाहजी बीजापुर के सुलतान के एक सूबेदार थे,और उनके प्रति स्वामिभक्ति भी रखते थे.परन्तु देश काल के विपरीत होने पर भी तथा पारिवारिक परिस्थितियों के प्रतिकूल होने पर भी अपनी माँ का आदर्शों का अनुपालन शिवाजी ने सदा किया.राष्ट्र के प्रति समर्पण,अप्रतिम साहस के बल पर उन्होंने अपनी किसानों की छोटी सी सुसज्जित सेना तैयार की,उसको विशेष रूप से प्रशिक्षित किया गुरिल्ला युद्ध के लिए.शिवाजी जानते थे कि प्रत्यक्ष युद्ध में साधन सम्पन्न मुस्लिमों को परास्त करना सम्भव नहीं है.अतः उन्होंने छापामार रणनीति का आश्रय लेकर उन अनेकों दुर्गों पर विजय प्राप्त की जो मराठों के हाथ से छिन चुके थे.यद्यपि उस काल में आस-पास के सभी दक्षिण भारतीय राजा,सामंत आदि परस्पर एक दूसरे के प्रति विद्वेष रखते थे,परन्तु शिवाजी ने प्राणपण से प्रयास करते हुए उन सबको यथासंभव एकता के सूत्र में बाँधा तथा कुशल नेतृत्व प्रदान किया .सुलतान ये सब सह न सका और शिवा जी पर हमला करने के लिए सेना भेज दी.कहाँ सुलतान की सेना और कहाँ शिवाजी के मुट्ठी भर लड़ाके .परन्तु एकता और कुशल नेतृत्व के बल पर सब कुछ संभव है,और वही हुआ.सुलतान की सेना परास्त हुई .सुलतान ने उनके पिता को धोखे से बंदी बना लिया .यही पुरस्कार था शाही जी भोंसले (शिवाजी के पिता) की बीजापुर के सुलतान के प्रति निष्ठां रखने का.२० वर्ष से भी कम आयु में शिवाजी ने अपनी कूटनीति के बल पर अपने पिता को मुक्त कराया तथा कुछ समय एक कूटनीति के अनुसार कुछ समय अपने जीते हुए प्रदेशों की व्यवस्था सुनिश्चित की.और छत्रपति की उपाधि धारण की लगभग १६४८ में.और स्वराज्य की स्थापना की.उन्होंने देशभक्त मुस्लिम सरदारों को भी अपनी सेवा में स्थान दिया.कोंकण विजय उनकी एक ऐसी उपलब्धि थी जिसके परिणामस्वरूप न केवल सुलतान औरंगजेब भी घबरा गया. इस प्रकार अपने विजय रथ को आगे बढ़ाते हुए शिवाजी ने अपने छोटे से जीवन काल में मुस्लिम शासकों को नाको चने चबवा दिए.अपनी आद्वितीय संगठन क्षमता,युद्ध कौशल ,कूटनीति तथा प्रखर बुद्धि और उन सबसे बढ़कर अपने गुरुओं व माँ का पथप्रदर्शन के बल पर , अपने सीमित साधनों के साथ मुस्लिम शासकों के छक्के छुडाये.
afzal शिवा जी के जीवन से सम्बन्धित एक प्रमुख प्रसंग जो उनकी त्वरित बुद्धि कौशल का प्रमाण है. सुलतान ने शिवाजी का वध करने के लिए अपने सिपहसालार अफज़ल खान को भेजा .ये सुलतान की धूर्तता पूर्ण कूटनीतिक चाल थी.शिवाजी प्रताप गढ़ में थे.अफज़ल खान रास्ते में लूटपाट करता हुआ प्रतापगढ़ पहुंचा शिवा जी का खून तो खौला परन्तु वह जानते थे कि उनकी सैन्य क्षमता सीमित हैअतः उन्होंने कूटनीति का परिचय दिया और मौन साधे रखा.अफज़ल खान ही उनके पिता को बंदी बनाये जाने तथा शिवाजी के भाई संभाजी की मौत का सूत्रधार. था अफज़ल खान ने चाल के अनुसार शिवाजी के पास मैत्री का सन्देश भेजा शिवाजी ने भी कूटनीति का उत्तर कूटनीति से देते हुए उपहार आदि भेज दिए.अफज़ल खान अपनी सेना के साथ पहुँच गया शिवाजी से अथाह प्रेम करने वाले उनके देशभक्त साथी अन्य सेनापति आदि शिवाजी की सुरक्षा को लेकर बहुत ही चिंतित थे परन्तु शिवाजी…………… उनके ह्रदय में तो स्वराज्य को सुदृढ़ करने का निश्चय था.. शिवाजी ने अपना जिरह बख्तर धारण कर कुरता और अंगरखा धारण किया.सर पर बख्तर धारण का टोपी पहिन अपने एक हाथ में बघनखा धारण किया और चल दिए अफज़ल खान के साथ…..उस धूर्त खान ने शिवाजी को गले मिलने का न्यौता दिया . लम्बा तडंगा भीमकाय युक्त अफज़ल खान और उसके कंधे तक पहुँचने वाले शिवाजी .अफज़ल खान उनकी गर्दन अपनी बगल में दबाकर शिवा के पेट में कटार ही मारने वाला था कि शिवाजी ने अपने बघनखे से उसको चीर डाला. अफज़ल खान यहाँ से भागा परन्तु सम्पूर्ण घटना की जानकारी मिलते ही शिवाजी के वीरों ने सुलतान की सेना को परास्त किया और जो सामान अफज़ल खान ने प्रतापगढ़ आते हुए लूटा था वो अपने कब्जे में कर लिया शिवाजी के एक वीर सरदार ने अफज़ल खान का प्राणांत कर दिया..सुलतान के कई सरदार शिवाजी से मिल गए
( शिवाजी के प्रेरक प्रसंगों में शाईस्ता खान से उनकी भिडंत,औरंगजेब की कैद से अपनी चतुरता से निकल भागना, और अपने ही पुत्र शम्भाजी द्वारा विद्रोही हो जाने पर अपने सरदारों को उनका सामना न करने के कारण एक प्रमुख दुर्ग खोने पर उनपर क्रोधित होना आदि अतुलनीय प्रसंग हैं.परन्तु समय व आलेख का विस्तार अनुमति नहीं देता )
,ये थे वीर छत्रपति शिवाजी जिन्होंने अपने राज्य को सुसंगठित किया नौसेना के महत्त्व को पहिचानते हुए अपनी नौसेना बनाई.इस विषय में तत्कालीन राजाओं के पास कोई रूचि या जानकारी नहीं थी.उन्होंने अपने सुसंगठित नौसैनिक बल के आधार पर लोहा मनवाया.परन्तु दुर्भाग्य हमारा केवल ५० वर्ष की आयु में शारीरिक व्याधियों पारिवारिक कठिनाईयों तथा राष्ट्र के शत्रुओं से लड़ते लड़ते इस वीर को विधाता ने अपनी शरण में ले लिया. और सम्पूर्ण देश से मुगलों को खदेड़ने का उनका स्वप्न अधूरा रह गया.
परन्तु इतने थोड़े समय में ही जो अभूतपूर्व कार्य उन्होंने किये सुप्त निष्प्राण चेतना को जागृत किया उसके उल्लेख के लिए शब्द कम हैं.
आज हमारा दुर्भाग्य कि पाठ्य पुस्तकों में से ऐसे प्रेरणास्पद प्रसंग ही लुप्त होते जा रहे हैं नवीन पीढी कैसे प्रेरणा ग्रहण कर आगे बढ़ेगी.मेरा अनुरोध उन सभी महानुभावों से जो इस क्षेत्र में सक्रिय हैं कि ऐसे महान पुरुषों के प्रसंगों को पुनः पाठ्य पुस्तकों में स्थान दिलाने का प्रयास किया जाना चाहिए जिससे नयी पीढी जाने समझे और प्रेरणा प्राप्त कर सके.

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