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“आज़ादी” की आज़ादी

हैरत
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तुलसीदास ने रामचरित मानस में कहा है ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाही’। पता नही ये बात उन्होंने रामचरित को ध्यान में रखकर कही थी या तत्कालीन भारत की गुलामी के दर्द को सह कर। ये उनका अपना दर्शन भी हो सकता है। और फिलहाल मैं उनके इस बात से इत्तेफाक नही रखता। और रखूं भी तो क्यों आखिर मुझे भी आज़ादी चाहिए। आजादी और गुलामी के मौजूदा बहस को देखते हुए अगर थोड़ा पीछे चलें तो हम पाएंगे कि देश ने एक लम्बी गुलामी झेली है। इतनी लम्बी कि यहाँ आजादी के दायरे और मायने दोनो बदल गए। दर्जनों पीढ़ियों ने लगतार परम्परा के रूप में गुलामी को जिया है, स्वीकारा है। देखा जाय तो यह पराधीनता सिर्फ वर्षों की गिनती भर नही है। इसने भाषा, खानपान यहां तक हमारी सोच तक को तगड़े से प्रभावित किया है। अब जब 6-7 दशक पहले हम एक विदेशी शासन से आज़ाद हुए तो हमें लगा कि हमारा कल्याण हो गया, हमने सदियों की तपस्या पार कर ली। लेकिन ये सब इतना आसान न था। स्वतन्त्रता की वाज़िब खुशी में हमने कई गैरवाजिब समझे जाने वाले मसलों पर नही सोचा। क्या एक सत्ता हमारी सैकड़ों सालों की सोच बदल सकती थी? शायद नही। हमने अपने नियम बनाये, संविधान बनाया, कानून बनाया। लेकिन पराधीनता की विरासत को आम जनमानस के मन मस्तिष्क से नही निकाल पाये। मौजूदा प्रकरण उसी गुलामी का प्रतिबिम्ब है। यहां आज़ादी के नारे हैं जो पुख्ता करते हैं कि वो गुलाम हैं। यहां व्यवस्था से रोष है जो बताते हैं कि वो क्रांति करना चाहते हैं। यहां समर्थन है जो गुलामी की परम्परा के वजूद को सही ठहराते हैं। यहां विरोध है जो अपने आज़ादी को दिखाकर एक और ही तरह की गुलामी दिखाते हैं।
कुल मिलाकर अधिकांशतः हम सच में गुलाम हैं। विचारों से, सोच से, खुद से, परिवार से, समाज से, समर्थन से, विरोध से और नजरिये से भी। अब “शादी करने की आज़ादी” के नारे लगेंगे तब गुलामी की भीषणता को आसानी से समझा जा सकता है। आज़ादी के क्रांति के आधार बिंदु ये होंगे तो शायद इनके समर्थक भी जल्द ही दूसरी टाइप की आज़ादी मांगते दिखेंगे। हम आज़ाद होंगे, ज़रूर होंगे बस ज़रूरत है अपनी गुलामी के पहचान की। उस गुलामी की जिसकी पहचान भर हमें आज़ाद कर सकती है। तब न किसी को मनुवाद याद आएगा न ही ब्राह्मणवाद। न ही कोई रोहित लटकेगा और न ही कोई कन्हैया जेल जायेगा। मुझे इंतज़ार है एक गांधी की जो ऐसी आज़ादी के सिद्धांतों को समझा सके, एक सुभाष की जो गुलामी से नफरत करना सिखा दे, एक सोच की जो इस देश की विरासत को बचा सके।

— नूतन गुप्ता

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