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मोहनजोदड़ो टू नोएडा वाया ‘विकास’

हैरत
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आशुतोष गोविरकर की ऋतिक रोशन को लेकर एक फ़िल्म आने वाली है- “मोहनजोदड़ो”। फ़िल्म के शुरूआती पोस्टर और थीम को देखकर भारतीय इतिहास के इस शानदार शहर के प्रति जिज्ञासा अपने आप पैदा हो जाती है। मिस्र या यूनान की सभ्यता जोकि इससे पहले थी या बाद में यह संशय आज भी बना हुआ है लेकिन मोहनजोदड़ो की सभ्यता में नगरीय व्यवस्था शानदार थी, इस पर शायद ही कोई बहस करे। मोहनजोदड़ो की इमारतें भले ही खंडहरों में बदल चुकी हों परंतु शहर की सड़कों और गलियों के विस्तार को स्पष्ट करने के लिये ये खंडहर काफी हैं। आज भी वहां देखने पर पता चलता है कि वहां की सड़कें एक ग्रिड प्लान की तरह थी मतलब आड़ी-सीधी। आसानी से दो बैलगाड़ी निकल सकने वाली सड़कें। खैर ये तो सबको पता ही चल जाता है कि भारत अपने इतिहास में एक ऐसा ज्ञान छिपाये है जो शायद आधुनिक पश्चिमी विकास की परिपाटी से काफी बेहतर थी।
ये बातें मुझे एकदम से अचानक याद नही आयी। दरअसल मैं अभी दो दिन पहले पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करके हरिद्वार से नोएडा जनसत्ता अख़बार में ट्रेनिंग के लिए आया हूँ। वैसे यहां आने से पहले मैं मानसिक रूप से यहां के प्रदूषण, गर्मी और ढेर सारी “एनसीआर वाली खासियत” के लिए तैयार था। ये तैयारी मेरे जैसे लोगों के लिए बेहद ज़रूरी थी क्योंकि हरिद्वार जैसी जगह से जून में नोएडा शिफ्ट करना किसी घनघोर सजा से कम नही था। ये इसलिए भी है क्योंकि यहाँ आकर रहने की व्यवस्था ढूंढने में 45℃+ तापमान झेलते हुए पसीना युक्त नारद-भ्रमण को भी अंजाम देना था।
चलिए वापस आता हूँ अपने मुद्दे पर, हाँ तो मैं नोएडा के आज के विकास के बारे में बता रहा था। तो मुझे किसी ने बताया था ये भारत के सबसे नए और महंगे शहरों में से एक है। मेट्रो, गगनचुम्बी बिल्डिंग, और तेज़ लाइफस्टाइल देख कर ये लगा भी। लेकिन एक सवाल हमेशा मेरे मन में बना रहा कि हमें ऐसे शहरों की जरूरत क्यों पड़ी। दिल्ली की अपनी खासियत है और हर कोई यहां बसना चाहता है लेकिन इस नोएडा में जोकि मूलरूप से दिल्ली की औद्योगिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बसाया गया था आज यहां इंसानों की भीड़ ने इसका पूरा स्वरुप ही बदल कर रख दिया है। हालांकि मैं भी अब इस भीड़ का हिस्सा हूँ। नोएडा और आसपास के सभी गांव, उपनगर खत्म हो चुके हैं। सब के सब इस चकाचौंध में शामिल होने को लाइन लगाये खड़े हैं। पता नही इससे किसे फायदा होगा लेकिन एक बात तय है ये विलय इन सभी जगहों की मौलिकता लील लेगा/चुका है।
लेख के शुरुआत में मैंने मोहनजोदड़ो की खासियत बतायी जो कि कम से कम 4600 साल पुरानी हड़प्पा सभ्यता काल की बात थी। आज के सर्वांगीण विकसित मनुष्य ने इतना सोचा फिर भी उस शानदार नगरीय व्यवस्था के करीब भी न पहुच पाया। हल्की सी बारिश ने भंगेल(नोएडा) कस्बे में सड़क को तालाब बना दिया। ट्रैफिक सिग्नल की थोड़ी सी नाकामी एक लम्बा जाम का कारण बन जाता है। लोग अपने को घिस रहे हैं। पता नही इसमें गलती किसकी है। दिल्ली के करीब रहने की खुशफहमी लिए ये लोग ज़िंदगी से कितनी दूर है ये शायद मैं नही कह सकता क्योंकि अब मुझे भी इन्ही का हिस्सा बनकर कम से कम कुछ महीने तो ज़रूर बिताने हैं। लगता तो यही है कि हमारी सोच पश्चिमी ज्ञान से ज्यादा प्रभावित है जो अपने मौसम जलवायु को ध्यान दिए बगैर उनके मॉडल के अंधाधुंध अनुकरण को तैयार है। हम अपनी जड़ से कितनी दूर है? हम अब कभी नई हड़प्पा बसा पाएंगे? क्या अब हम वास्तव के भारतीय स्मार्ट सिटीज़ बना पाएंगे? कुछ नही पता..

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