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कॉर्पोरेट और आधी आबादी

हैरत
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देश में इस वक़्त समान नागरिक कानून की चर्चा छिड़ चुकी है। ये कानून ना सिर्फ धार्मिक समानता की बात करता है बल्कि लिंग के आधार पर व्याप्त गैरबराबरी को भी खत्म करने की भी कूबत रखता है। ये तो भविष्य की बात है कि यह बराबरी कब आएगी लेकिन वर्तमान हालातों की बात करें महिलाएं अभी भी पुरुषों से काफी दूर हैं। समाज के परम्परागत भेदभाव के साथ साथ कॉर्पोरेट सेक्टर में भी अभी आधी आबादी को लम्बा रास्ता तय करना है। तमाम कोशिशों के बावजूद इस मामले में स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। कॉर्पोरेट क्षेत्र में भारतीय महिलाओं की पहचान महज चन्द नामों के इर्द गिर्द टिकी है। इंदिरा नूई, चन्दा कोचर और अरुंधति भट्टाचार्य कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने शीर्ष पद पर पहुँच कर भारतीय महिलाओं की उपस्थिति को कॉर्पोरेट क्षितिज में बनाये हुए हैं लेकिन शायद गिनती के ये नाम इतनी बड़ी आबादी में काफी नहीं हैं।
एक रिपोर्ट के मुताबिक शीर्ष पदों पर महिला उपस्थिति के मामले में भारत की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। विभिन्न कम्पनियों के बोर्ड में आज भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। इस मामले में भारत महज 7 फीसदी भागीदारी के साथ दुनिया में 26वें पायदान पर है । ये स्थिति भी तब है जब सरकार ने कम्पनियों के बोर्ड में कम से कम 1 नियुक्ति अनिवार्य कर दी है। “वुमन ऑन बोर्ड 2016” नाम के एक अध्ययन को करते हुए ग्लोबल रिक्रूटमेंट टेंडरिंग प्लेटफ़ॉर्म माइहाईरिन्ग क्ल्ब डॉट कॉम ने पाया क भारत की स्थिति इस मामले में विकासशील देशों के औसत से भी कम है। 125 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश में जहाँ नारियों को पूजने की परम्परा रही हो वहां समाज में महिलाओं की ऐसी भागीदारी के पीछे बहुत से कारण हैं और ऐसा नहीं है कि इसके बेहतरी के लिए प्रयास नहीं किये जा रहे।
‘कम्पनी एक्ट 2013’ के तहत भारतीय प्रतिभूति एवं विनमय बोर्ड यानी सेबी ने सूचीबद्ध कम्पनियों को अपने बोर्ड में कम से कम एक महिला निदेशक की अनिवार्यता का फरमान जारी किया गया था, लेकिन डेडलाइन तक अधिकतर कम्पनियों ने इस मामले में गम्भीरता नहीं दिखाई थी। दिल्ली के लाल बहादुर शास्त्री इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट के द्वारा किये गये एक दूसरे अध्ययन में नतीजा ये निकला कि केवल 5 फीसदी औरतें ही कंपनियों के ऊँचे पदों पर पहुँच पाती हैं जिनमें बोर्ड स्तर पर ये हिस्सेदारी गिरकर महज़ 2 फीसदी पर आ जाती है। जबकि यही आंकड़ा वैश्विक स्तर पर 20 फीसदी है। अगर महिला श्रम की बात करें तो इसमें भी पद के साथ भारी असमानता बढ़ती दिखती है। निचले स्तर पर जहाँ महिलाओं की भागीदारी 28 फीसदी तक है वहीं मिडिल लेवल पर ये घटकर 14.91 फीसदी तक आ जाती है। हालांकि एक आंकड़ा ये भी कहता है कि ऐसे तमाम प्रयासों से बिना महिलाओं के बोर्ड वाली कम्पनियों कि संख्या में तेज़ी से गिरावट भी हो रही है। सकारात्मक बात यही है कि 2013 में ऐसी कम्पनियों की संख्या 44 फीसदी तक थी वहीं 2014 में ये 29 फीसदी तक आ गयी थी। अनुमान के मुताबिक अभी ये हिस्सेदारी और भी कम हुई है। अगर विभिन्न क्षेत्रों की बात करें तो 17.5 फीसदी के साथ टेली कम्यूनिकेशन सेवाओं में महिलाएं थोड़े बेहतर स्थिति में हैं। वहीं आइटी और फाइनेंस के क्षेत्र में भी क्रमशः 11.6 और 9.6 फीसदी की हिस्सेदारी है।
हालत सुधर सकते हैं अगर सरकार के साथ कॉर्पोरेट क्षेत्र के दिग्गज उद्योग जगत की इस असमानता के प्रति गम्भीर हों। स्वतंत्र निदेशक अरुण दुग्गल के मुताबिक सेबी को सभी कम्पनियों के बोर्ड में कम से कम 2 महिलाओं कि नियुक्ति अनिवार्य कर देनी चाहिए। उनका ये भी कहना है भी भारत में महिलाओं की प्रतिभा पर शक नहीं किया जा सकता है और यहाँ व्याप्त लैंगिक असमानता को खत्म करने की दिशा में ये अच्छी पहल होगी। अब देखना ये है कि कम्पनियां कब और किस हद तक इस बारे में सोचती हैं लेकिन इतना साफ़ है अभी देश में आधी आबादी को समग्र रूप से आगे बढ़ने के लिए अपने कौशल और अधिकारों के दम पर एक मुश्किल पर जरूरी मुकाम हासिल करना है। 21वीं सदी के इस दूसरे दशक में महिलाएं हर क्षेत्र में कामयाबी का झंडा गाड़ रहीं हैं। मुश्किल से मुश्किल काम भी औरतों द्वारा किये जा रहें हैं। ऐसे अच्छे माहौल में कॉर्पोरेट जगत के शीर्ष पदों पर में थोड़ा तो है लेकिन थोड़े नहीं ज्यादा की जरूरत है।

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