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हिंदी की अभी और दुर्दशा बाकी है?

AAKARSHAN
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हमारा दुर्भाग्य है कि ….हम एक ऐसे देश में पैदा हुए हैं,जहाँ ….हिंदी..के पक्षधरों की संख्या दिन पर दिन गिरती जा रही है.हिंदी को १४ सितम्बर १९४९ को..राष्ट्र-भाषा घोषित करते समय हमारे राज-नेता क्या कभी सोचे होंगे कि यह जहाँ, उस दिन थी,उसी के इर्द-गिर्द घुमती रहेगी?और क्या कभी एक खूंटे से बंधन-मुक्त होकर भारत के कोने-कोने में ,स्वतंत्र रूप से भ्रमण नहीं कर सकेगी?क्या हमारे समस्त देशवासी हिंदी को …उचित सम्मान नहीं दे सकेंगे?क्या सभी लोग उसे अपना नहीं बनायेंगे?क्या ऐसा भी दिन आएगा जब हम राजभाषा को राष्ट्र-भाषा के रूप में सच्चे मन से ग्रहण नहीं कर सकेंगे ? क्या कभी हिंदी कि ऐसी भी दुर्दशा होगी,कि उसे गले लगाने से हमें क्षेत्रीयता का सामना करना पड़ेगा?जी हाँ! ,जब कोई कार्य दिखावे के लिए या मजबूरी में अथवा कुर्सी के मोह में ,किया जायेगा तो ऐसा ही होगा.हमारे देश में क्षेत्रीयता और प्रान्त-वाद , जिस तरह से सबल होता जा रहा ऐसी दश में …हिंदी को उसका उचित सम्मान या दर्ज़ा मिलना असंभव प्रतीत होता है. कहने को तो हम ….हिन्दुस्तानी है.एक ऐसे हिन्दुस्तानी जहाँ ,हिन्दू और हिंदी का नाम लेने से डर लगता है. पता नहीं कब किस देश-द्रोह के मामले में या साम्प्रदायिकता फ़ैलाने के आरोप में फंसाकर …..मिसा या आतंक -रोधी ,कानून के अंतर्गत …निरुद्ध कर दिया जायेगा.जो भी हो,हिंदी…. बेचारी…… बनकर रह गई है.जिस देश के प्रधान-मंत्री ही मजबूरी में ,हिंदी बोलते है,….वह भी,…उर्दू में लिखवाकर, ऐसे में हम और लोगो से क्या उम्मीद करें?जिस देश के राष्ट्र -पति हिंदी बोलने में असहज लगते हो,गृह-मंत्री हिंदी बोलना ही नहीं चाहते,सचिवों और अन्य अधिकारियों का तो कहना ही क्या?ऐसे में क्या हिंदी के साथ ….न्याय हो सकेगा,यह सोचना ही बेमानी होगा.
मुझे याद है कि सत्तर के दशक में पूरा हिंदुस्तान हिंदी के पक्ष और विपक्ष में एक बार फिर झुलस हगाया था.उत्तर भारत में अंग्रेजी- विरोधी आन्दोलन और दक्षिण भारत में हिंदी विरोधी.जहाँ तक मुझे याद है,कुछ जाने भी गयी थी,स्कूल,कालेज और विश्व-विद्यालय महीनो के लिए बंद कर दिए गए थे.लेकिन अंततः हार…हिंदी कि ही हुई.हर वर्ष हिंदी दिवस मनाया जाता रहा है,और मजबूरी में मनाया भी जाता रहेगा,…….लेकिन वही….ढाक के तीन पात…..इससे बड़ी…. विडंबना क्या होगी कि……हिंदी दिवस पर हमारे नेता ,मंत्री….. अंग्रेजी में,… हिंदी की तारीफ….. करते नहीं अघाते हैं.आगे भी ऐसा ही होगा.
बहुत कुढ़ होती है,जब…..हिंदी सिनेमा के कलाकार,जो हिंदी की कमाई खाते है,……अंग्रेजी में ….साक्षात्कार देते हुए,…टी.वी. पर बेहयाई की हंसी हँसते रहते हैं.अभी हाल ही में ,अपनी यूरोपीय-देश की यात्रा के दौरान,…..लन्दन,फ़्रांस और जर्मनी तथा इटली में,…..हम लोगो के …हैलो! !के ज़बाब में….वहां के लोगों ने ….न..म…स्ते!! कहकर हमें ….शर्मिंदा कर दिया…लेकिन, सच मानिए….उस शर्मिंदगी ….में भी …हमें अपनी राष्ट्र-भाषा हिंदी….पर गर्व का जो अनुभव हुआ …वह हमेशा याद रहेगा.पेरिस- भ्रमण के दौरान…..बस के चालक ने…….’ऐन इवनिंग इन पेरिस …..तथा अन्य हिंदी गानों को बजाकर …हमारा दिल जीत लिया.एक बार तो ऐसा लगा कि वह ….हिन्दुस्तानी तो नहीं है? लेकिन नहीं, वह फ़्रांसिसी ही था.जब कि ….दक्षिण-भारत ,विशेष कर तमिलनाडु में,लगता है,…जैसे हम विदेश में आ गए हैं.यह वाही चेन्नई है,जहाँ….मैंने अपनी आँखों से देखा था कि ……’.दिल वाले दुल्हनियां ले जायेंगे’…..के टिकट के लिए भीड़ को नियंत्रित करने के लिए ,पुलिस को लाठी-चार्ज..करना पढ़ा था. अधिकांश दर्शक मद्रासी ही थे. हिंदी में गाली दीजिये तो तुरंत हिंदी में जबाब देंगे,लेकिन जान बूझ कर….. हिंदी नहीं बोलना चाहते हैं.
कहने का तात्पर्य यह है कि …विदेशो में भी सम्मान पाने वाली…हिंदी…अपने ही देश में बेगानी होती जा रही है.किस भारतीय को याद नहीं होगा कि …..हमारे तत्कालीन विदेश मंत्री, अटल बिहारी वाजपेई जी ने …संयुक्त राष्ट्र-संघ में हिंदी में भाषण देकर ,हिंदी का सम्मान बढाया था,और सभी देशों के प्रतिनिधियों ने …ताली बजाकर स्वागत किया था.ऐसा नहीं है कि हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए ,सरकारे काम नहीं कर रही है है,लेकिन हिंदी कि दुर्दशा रुकने का नाम नहीं ले रही है.इसका सबसे बड़ा कारण है,कि हम इसे……. मन से अपनाना ही नहीं चाहते.इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि …..अंग्रेजी हमारे विकास के लिए आवश्यक है,लेकिन ….हिंदी इतनी धनी भाषा है कि, सारी भाषाओँ को आत्मसात करने कि क्षमता है इसमें.बस आवश्यकता है,…..इसे सच्चे मन से अपनाने की,और इसके सम्मान की.केवल यही रास्ता है,……..हिंदी को दुर्दशा से बचाने की.
जय हिंद ! जय भारत!!

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