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चलिए मान लिया की प्रधान मंत्रीजी ने 500 व 1000 के नोट बंद करने का निर्णय नेक-नियति और देश हित में ही लिया पर इसके लिए तैयारी का नितांत अभाव देखने को मिला. लिहाज़ा आम आदमी का दैनंदिन जीवन दूभर हो गया. बैंकों में तबसे लेकर आजतक लंबी कतारें लगी है . घंटों तक लाइन में खड़े होने के बाद भी “कैश ख़त्म हो गया’ की घोषणा हो जाती है और बिचारे आम आदमी को खाली हाथ लौटना पड़ रहा है . यही सिलसिला कमोबेश हर शहर, कस्बे और गांव में देखने को मिल रहा है . ऊपर से सरकार का ये कहना की ” जिनके पास ब्लैक मनी है उन्हें ही परेशानी है, बाकी लोगों को कोई दिक्कत नहीं है” देखा जाय तो यह आम आदमी की तक़लीफों का मज़ाक उड़ाना हुआ . एक मायने में उस गरीब का क्रूर अपमान कहा जा सकता है जो इस यातना को भोग रहा है.
उधर इस फैसले पर संसद में सत्ता और विपक्ष के बीच घमाशान ज़ारी है. संसद का कार्य-कलाप ठप्प हो रहा है शोरोगुल में अध्यक्ष महोदय/महोदया कार्रवाई स्थगित कर चाय पीने चलेे/चली जाते/जाती हैं. शीतकालीन अधिवेशन पर अभी से ग्रहण लग गया है. बीजेपी बार बार बहस की मांग कर रही है और विपक्ष इस मांग को अस्वीकार कर रहा है कि या तो फैसले को वापस लो अन्यथा कोई बहस नहीं होने देंगे. यह भी उचित नहीं है क्योंकि लोकतंत्र में हर मसले पर गंभीरता से बहस करना भी ज़रूरी होता है. इसी प्रकार विपक्ष संसद में इस विषय पर प्रधानमंत्री कि अनुपस्थिति को लेकर बेहद नाराज़ और उत्तेजित है पर प्रधानमंत्री वहाँ नहीं आ रहे हैं. चलिए उनकी ये जिद्द की मोदीजी संसद में बैठ कर उनकी बात सुने ठीक भी नहीं तो भी इसमें हर्ज़ ही क्या है की वे उपस्थित हो जाएँ. इसे ईगो और प्रेस्टीज का सबब ना बनाया जाए क्योंकि यह राष्ट्र का प्रश्न है. इस तमाम गन्दी सियासत का खामियाज़ा जनता को उठाना पड़ रहा है क्योंकि कई जनोपयोगी बिल संसद से पास होने हैं पर फिलहाल लंबित रहेंगें.
ऐसा लगता है कि सरकार भी गंभीर नहीं है वरना अगर निष्पक्ष भाव से आत्मान्वेषण करे तो एक बात उनके समझ में आनी चाहिए कि कार्यान्वयन ( inplementation ) अत्यंत खराब हुआ है बल्कि असफल है. पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंहजी ने कार्यान्वयन को एक “monumental failure (याने व्यवस्थामूलक असफलता)” बताया है जो कि बड़ी हद तक सही है . इस पर जेटलीजी का ये पलटवार कि तमाम बड़े-बड़े घोटाले मनमोहन सिंहजी के प्रधानमंत्रित्व काल में हुए जिनसे ब्लैक मनी का प्रसार-विस्तार हुआ कोई सही जवाब नहीं है क्योंकि वो अलग बात और नोटबंदी के बाद नए नोटों कि त्वरित व्यवस्था व वितरण एक बिलकुल अलग बात है. ये तो निरी राजनीती है. सही बात का सही उत्तर देना चाहिए. अगर यह व्यवस्था ठीक चलती तो आम आदमी अनेक कष्टों से बच जाता. अव्यवस्था इसी बात से सिद्ध हो जाती है कि रोज–रोज नए आदेश और रियायतों का ऐलान हो रहा है जिसका मतलब है कि सरकार खुद असमंजस में है कि समस्या से कैसे जूझा जाय ताकि आम आदमी की मुश्किलें कुछ काम की जा सके. इन लाइनों में अब तक कोई सत्तर लोग मर चुके हैं अगर ये बात 50 प्रतिशत भी सही है तो कोई 35 लोग तो मरे होंगें फिर भी ये एक दर्दनाक हादसे से हुए जो तमाम अव्यवस्था की वजह से हैं. गुलाम नबी आज़ाद ने अगर इन मारने वालों की तुलना सेना में मारने वाले शहीदों से करदी तो क्या गुनाह कर दिया. सीधीसी बात है सैनिक वहाँ देशरक्षा के लिए मरे और यहां इन लोगों को देश में कालेधन और भ्रष्टाचार मिटाने के लिए मोदीजी के आह्वान का साथ देना पड़ा वर्ना ये सब अपने अपने घरों में शांत बैठे थे.
रोज–रोज नए आदेश और रियायतों का ऐलान कर रही है तो क्यों नहीं नोटों को परिवर्तित करनें या जारी करने की प्रक्रिया में पूर्णतया सरकारी नियंत्रण वाले ऐसे विभागों जिनकी पहूँच दूर-दराज तक है, को शामिल किया गया? संभवत: यदि ऐसा किया जाता तो अभी जनता को जितनी परेशानी हो रही है, उससे कहीं कम होती.
-ओपीपारीक43 oppareek43
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