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मुसलमानों ! या तो विरोध करो अथवा नफरत झेलो

देख कबीरा रोया
देख कबीरा रोया
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हम सभी जानते हैं कि 1947 में आज़ादी तो मिली पर वो एक रक्तरंजित आज़ादी थी. लाखों बेगुनाहों का खून सांप्रदायिक हिंसा के तहत बहाया गया. परिवार उजड़ गए. बलात्कार, हत्या और जबरन धर्म परिवर्तन किये गए. याने लोगों को बेहिसाब ज़ुल्म सहने पड़े. विभाजन की पृष्टभूमि में दोनों कौमों (हिन्दू-मुस्लिम) को इस त्रासदी से गुजरना पड़ा. आखिर उप महाद्वीप को जिन्ना की ‘द्वी-राष्ट्र’ थ्योरी के चलते एक बड़ा मूल्य चुकाना पड़ा. जिन्ना, हालांकि ,आधुनिक विचारधारा के राजनीतिज्ञ थे जो कुछ हद तक धर्म निरपेक्षता (secularism ) में यकीन रखते थे मगर दुर्भाग्य से जल्दी परलोक सिधार गए और उनके बाद आने वाले पाकिस्तानी हुक्मरानों में से दो की तो सत्ता संघर्ष में ही मौत होगयी और उनके बाद जो लोग आये वे (भुट्टो को छोड़ कर) सभी भ्रष्ट, नाकारा और कट्टर सुन्नी मुस्लमान थे. इस स्थिति का फायदा सर्वप्रथम अयूब खान ने उठाया. पर थे तो वे एक जनरल सो उन्होंने सदा-सर्वदा के लिए पाकिस्तान का भविष्य सेना के नाम गिरवी कर दिया जो आज तक सेना के पास ही पड़ा है. लिहाज़ा, जब-जब तथाकथित लोकतान्त्रिक, याने चुनी हुयी सरकारें आई भी तो वे सभी सेना की कठपुतली ही बनी रही याने असली सत्ता की डोर हमेशा सेना के हाथ में रही और आज भी उसी के हाथ में है.

बहरहाल, मैं इस के विस्तार में ना जा कर यहां हिंदुस्तानी मुसलमान भाइयों की बात करूँगा. यह इस लिए भी जरूरी है कि आज़ादी के 69 साल बाद भी भारत के मुसलमान इस देश के संविधान से ज्यादा अपने व्यक्तिगत (याने शरीया-सम्मत )विधान के आदेशों को महत्त्व देते हैं जो कि भारतीय लोकतंत्र के बवुनियादी सिद्धांतों से मेल नहीं खाते. उनका तर्क है कि शरीया क़ुरआन-सम्मत है और हर मुसलमान इसके लिए प्रतिबद्ध है. अब क़ुरान में तो ‘काफिरों’ (non – believers ) को मारना भी पुण्य का कार्य है तो इसकी भी इज़ाज़त होनी चाहिए. मार डालिये क्योंकि क़ुरान का आदेश है.

दुनिया के मुस्लिम ये भूल रहे हैं कि अगर मुस्लमान किसी लोकतंत्र (जैसे कि भारत) में रहता है तो उसे उस लोकतंत्र के विधान को मानना पड़ेगा और उसे उचित सम्मान देना होगा क्योंकि और कोई चारा भी नहीं है. क़ुरान की माने तो लोकतंत्र बेमानी हो जाता है. मसलन ‘लिंग-गत बराबरी’ (gender equality ) एक ऐसा सिद्धांत है जो सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के प्राय: सभी लोकतंत्र (democracies ) में है. ये कैसे हो कि औरों पर तो संविधान-सम्मत क़ानून लागू हों और आप पर (चूँकि आप मुस्लिम हो) शरिया लागु हो. शरिया कानून मध्यकाल के मुस्लिम कबीलों के लिए तो ठीक था पर इक्कीसवीं सदी में लोकतान्त्रिक देशों में इसका कोई औचित्य नहीं. बल्कि इस कट्टरपंथी विधान पर दृढ़तापूर्वक आघात करना जरूरी है. अभी कल ही मुसलामानों कि तथाकथित “राष्ट्रिय” संस्था ‘जमीयत’ ने सुप्रीम कोर्ट को को चुनौती देते हुए कहा है कि शरिया के तलाक़ सम्बंधित प्रावधानों में कोर्ट फेरबदल नहीं करे क्योंकि ये क़ुरान द्वारा आदेशित है.

गौरतलब है कि ये शरिया-सम्मत ‘क़ुरानिक’ आदेश लिंग-भेद पर आधारित हैं क्योंकि ये पुरुषों को महिलाओं पर शारीरिक और मानसिक ज़ुल्मो-गारत की इज़ाज़त देते है. कोई दो दशक पहले एक वृद्ध और लाचार मुस्लिम महिला ‘शाहबानो’ ने भी उसके पति द्वारा तलाक़ ( तीन बार बोल कर) दे कर उसे सड़क पर ला खड़ा किया था तो उस महिला ने उस अन्याय के खिलाफ कोर्ट में गुहार की थी कि क्यों नहीं उसे भी देश के संविधान सम्मत कानून के हिसाब से न्याय मिले.. इस पर मुल्ला-मौलवियों में हड़कम्प मच गया. संसद में मामला पुरज़ोर उठाया गया .तत्कालीन कायर प्रधान मंत्री मुल्लाओं से डर गए जबकि उन्हीं के एक केबिना मंत्री (जो स्वयं मुस्लिम थे) ने कहा कि मुस्लिम महिलाओं को न्याय मिलना चाहिए और पूरे देश में एक ही नागरिक संहिता (uniform civil code ) लागू किया जाना चाहिए. ऐसा नहीं किया गया और उच्चतम न्यायालय के फैसले को संसद ने निरस्त कर दिया. उन मुस्लिम मंत्री महोदय ने भी विरोध में राजीव गांधी मंत्री परिषद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद कोई एक साल तक इस यूनिफार्म सिविल कोड पर सदन के बाहर कई फोरम पर खासी बहस चली पर आज तक यह कोड नहीं लागू हुआ क्योंकि सबसे अधिक विरोध जमात, जमीयत और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी मुस्लिम संस्थाएं करती हैं. ज़ाहिर है, हमारे राजनैतिक आका मुस्लिम वोट के लालच में इन देशद्रोहियों कि तरफदारी करते हैं.

आम मुस्लिम नागरिक और खासकर मुस्लिम महिलायें शरिया के दमनकारी प्रावधानों से त्रश्त महसूस करते हैं पर मुल्लों और उनके फतवों से डर के मारे इस के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाते. पर ये गलत है. आखिर कब तक चुप रह कर इन कट्टरपंथियों का अन्याय सहन करते रहेंगें. उन्हें इसका विरोध करना होगा. और एक बार को सिर्फ मानने के लिए यह मान भी लें कि सारे मुसलमान ऐसे अन्यायपूर्ण शरिया कानून के पक्ष में हैं तो फिर मेर राय में उन्हें हिंदुस्तान छोड़ कर पाकिस्तान चले जाना चाहिए. आखिर पाकिस्तान बना ही इस आधार पर कि वे हिन्दुओं के साथ एक दोयम दर्ज़े की कौम बन कर नहीं रहेंगें. आज दुनिया में तथाकथित जिहाद चल रहा है सो भी क़ुरान और इस्लाम के नाम पर जघन्यतम अपराधों को अंजाम देने के लिए हो रहा है. पढ़े-लिखे मुसलमान कहते हैं कि इस्लाम शांति का धर्म (a religion of peace ) है तो फिर ऐसा कहने वालों को इन जिहादियों और शरिया समर्थकों का पुरज़ोर विरोध करना चाहिए जो वे नहीं कर रहे हैं.

आज अमेरिका के प्रेजिडेंट पद के प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रम्प खुले आम कह रहे हैं कि मुसलमानों के अमेरिका प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए. हालांकि मैं उनकी इस विचारधारा का समर्थन नहीं करता मगर वे जो कह रहे हैं इस से यह तो जरूर साबित होता है कि मुस्लिम कौम के प्रति लोगों कि नफरत बढ़ती जा रही है क्योंकि ना तो उनके दृष्टिकोण में और ना ही उनके क़ुरान-शरीया आदेशों में किसी प्रकार का सुधार (reform ) हो पा रहा है. ऐसे में आप ही बताएं कि लोकतान्त्रिक समाज का अस्तित्व रहे या कट्टरपंथी जिहादियों का ? यह एक यक्ष प्रश्न है क्योंकि IS ने दुनिया को (इस्लाम के नाम पर ) तबाह करने की कसम खायी है. और अगर IS को हमारी शांतिप्रिय विश्व बिरादरी मिल कर समाप्त करती है तो फिर इस्लाम का खात्मा होना भी लाज़मी है क्योंक IS के विष बीज इसी धर्म ने पैदा किये जिसका परिणाम आज विश्व समुदाय भुगत रहा है. जब ‘ हिन्दू कोड बिल’.पास किया गया तो किसी ने विरोध नहीं किया जबकि यह बिल हिन्दुओं कि मनु-संहिता के कतिपय प्रावधानों को न्यायसंगत बनाने के लिए किया गया था. ज़ाहिर है, सामान्यतः हिंदू एक सहिष्णु कौम है इसलिए यह अपने धार्मिक सुधारों को स्वीकार करने से नहीं हिचकिचाती जबकि भारतीय मुस्लिम अभी तक कट्टरपंथियों के बहकावे में आ कर मुल्लों को समर्थन करते प्रतीत होते हैं. फलस्वरूप या तो वे खुल कर अपने इन धर्मांध लोगों का व्यापक विरोध करें अथवा अन्य भारतियों कि नफरत झेलें. .

– ओपीपारीक43oppareek43

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