इस धरती पर एक विशेष प्रकार के प्राणी हैं जो मानो फूस की आग हैं जो अचानक ही जल उठते हैं और झटपट बुझ भी जाते हैं उनके पीछे हमेशा एक आदमी रहना चाहिए जो जरूरत के मुताबिक उनके लिए पानी व फूस जुटा दिया” ये चंद पक्तियां है शरतचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखी गई कहानी ‘बिलासी’ की। जिसमें इंसान के स्वभाव और समाज को बहुत बारीकी से उकेरा गया है। समाज के दोहरे मापदंड में उलझे कुछ खास चरित्रों के जीवन की कहानियों को शब्दों में पिरोने में उन्हें विशेष महारथ हासिल थी। शरतचंद्र के बारे में कहा जाता है कि उनकी कहानी के हर पात्र उनके असल जीवन से प्रभावित थे। देवदास, मंझली दीदी, चरित्रहीन, स्वामी, श्रीकांत, पाथेर ढाबी, स्वामी उनकी इन कहानियों के पात्र उनके असल जिंदगी के बहुत करीब रहे। विष्णु प्रभाकर ने अपनी किताब ‘आवारा मसीहा’ में शरतचंद्र की जिंदगी के कई पहलु को उकेरा है।
उनकी गरीबी और बुरे वक्त ने दिखाया समाज का दोहरा चरित्र
20वीं शताब्दी के सबसे चर्चित व लोकप्रिय उपन्यासकारों व लघुकथा लेखकों में से एक शरतचंद्र का जन्म बंगाल में सन् 1876 में हुआ था। बचपन से ही गरीबी में पले-बढ़े शरतचंद्र को पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था, लेकिन घर की तंगहाली के कारण बंगाल में ही ‘प्यारी पंडित’ नाम की एक छोटी-सी पाठशाला में दाखिला ले लिया। इसके बाद हुगली ब्रांच हाई स्कूल में फाईन आर्ट विषय में अपनी रूचिनुसार दाखिला ले लिया। लेकिन आर्थिक अस्थिरता के चलते उन्हें बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी।
अपनों की मौत ने दी जीवन को नई दिशा
उन्होंने अपने जीवन के 20 वर्ष अपने मामा के यहां भागलपुर में गुजारे। अपने माता-पिता की मृत्यु के दुखद समाचार ने उन्हें बेहद निराश कर दिया। समाज की संकीर्ण मानसिकता से खिन्न होकर उन्होंने ग्रामीण बंगाली समाज के साथ जुड़कर काम करना शुरू कर दिया।
रास नहीं आई सरकारी नौकरी में बर्मा चले गए थे, वहां उन्होंने एक सरकारी विभाग में क्लर्क की नौकरी की, लेकिन कुछ अलग करने की चाह रखने वाले शरत बाबू को नौकरी रास नहीं आई और उन्होंने वापस स्वदेश लौटने का फैसला किया।
‘देवदास’ में थे उनकी जिंदगी के असली किरदार
शरतचंद्र को कभी भी समाज के बनाए रीति-रिवाजों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, उनका जो मन करता वो वही करते थे। उनके लिखे उपन्यास ‘देवदास’ के मुख्य किरदार उनकी निजी जिंदगी के करीबियों, दोस्तों से प्रभावित थे। कहा जाता है कि देवदास की मुख्य किरदार पार्वती यानि पारो, उनकी बचपन की एक महिला दोस्त से प्रभावित था, जिसके साथ वो लकड़पन में खेला करते थे। वहीं चंद्रमुखी का किरदार एक बंगाल के एक कोठे पर रहने वाली लड़की का किरदार था, जिससे वो एक रोज कोठे पर मिले थे। वो कोठे पर बैठकर ही उस किरदार को शब्द देते थे। शरतचंद्र को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि लोग उन्हें कोठे पर जाता देखकर अपनी नजरें तिरछी करना शुरू कर देंगे, क्योंकि शरतचंद्र का मानना था कि जिंदगी का वास्तविक अर्थ तो उसी जगह मिलता है, जिस जगह को समाज और लोग बदनाम कहते हैं। भला बंगले और आलीशान गाड़ियों में जिंदगी कहां मिला करती है?…Next
Read More :
जब अश्लील साहित्य लिखने पर इस्मत चुगतई और मंटो पर चला था मुकदमा
Read Comments