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उस्ताद बिस्मिल्ला खान मंदिर में करते थे रियाज, दूरदर्शन-आकाशवाणी की सिग्नेचर ट्यून में भी है उनकी बनाई धुन

शहनाई का नाम याद आते ही शहनाई के जादूगर उस्ताद बिस्मिल्ला खान का नाम जहन में आने लगता है। बनारस के घाट उस वक्त गूंज उठते थे, जब उस्ताद बिस्मिल्ला रियाज किया करते थे। धर्म की दीवारों को गिराकर उस्ताद बिस्मिल्ला खान सरस्वती मंदिर में रियाज किया करते थे। आज उनका जन्मदिन है। आइए, जानते हैं उनसे जुड़ी खास बातें।

Pratima Jaiswal
Pratima Jaiswal21 Mar, 2019

 

 

मंदिर में करते थे रियाज

उस्‍ताद बिस्मिल्‍लाह खां का जन्‍म 21 मार्च को बिहार के डुमरांव में एक पारंपरिक मुस्लिम परिवार में हुआ था। हालांकि, उनके जन्‍म के वर्ष के बारे में मतभेद है। कुछ लोगों का मानना है कि उनका जन्‍म 1913 में हुआ था और कुछ 1916 मानते हैं। उनका नाम कमरुद्दीन खान था। वे ईद मनाने मामू के घर बनारस गए थे और उसी के बाद बनारस उनकी कर्मस्थली बन गई। उनके मामू और गुरु अली बख्श साहब बालाजी मंदिर में शहनाई बजाते थे और वहीं रियाज भी करते थे। यहीं पर उन्‍होंने बिस्मिल्‍लाह खां को शहनाई सिखानी शुरू की थी। बिस्मिल्‍लाह खां अपने एक दिलचस्‍प सपने के बारे में बताते थे, जो इसी मंदिर में उनके रियाज करने से जुड़ा है। एक किताब में उनकी जुबानी ये किस्सा है। इसके मुताबिक, उनके मामू मंदिर में रियाज के लिए कहते थे और कहा था कि अगर यहां कुछ हो, तो किसी को बताना मत।

 

 

बनाई दूरदर्शन और आकाशवाणी की सिग्नेचर ट्यून
उनकी शहनाई की धुन अफगानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, पश्चिम अफ्रीका, अमेरिका, जापान, हांगकांग और विश्व भर की लगभग सभी देशों में गूंजी। फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ के अलावा उन्होंने एक कन्नड़ फिल्म में भी शहनाई की धुन बिखेरी थी। दूरदर्शन और आकाशवाणी की सिग्नेचर ट्यून में भी है उनकी शहनाई की धुन है।

 

 

 

हमेशा मां सरस्वती को पूजते थे

बिस्मिल्लाह साहब की इस कहानी की सच्चाई सिर्फ वही जानते होंगे, लेकिन जिस संस्कृति को वो मानते थे, उसे बताने का काम यह किस्सा करता है। शिया मुस्लिम होने के बावजूद वे हमेशा मां सरस्वती को पूजते थे। उनका मानना था कि वे जो कुछ हैं, वो मां सरस्वती की कृपा है। करीब 70 साल तक बिस्मिल्लाह साहब अपनी शहनाई के साथ संगीत की दुनिया पर राज करते रहे। आजादी के दिन लाल किले से और पहले गणतंत्र दिवस पर शहनाई बजाने से लेकर उन्होंने हर बड़ी महफिल में तान छेड़ी। उन्होंने एक हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ में भी शहनाई बजाई, लेकिन उन्हें फिल्म का माहौल पसंद नहीं आया। बाद में एक कन्नड़ फिल्म में भी शहनाई बजाई। ज्यादातर बनारसियों की तरह वे इसी शहर में आखिरी सांस लेना चाहते थे। 17 अगस्त 2006 को वे बीमार पड़े। उन्हें वाराणसी के हेरिटेज अस्पताल में भर्ती कराया गया। दिल का दौरा पड़ने की वजह से वे 21 अगस्त को दुनिया विदा हो गए।…Next

 

 

 

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