आज के जमाने में आलसी होना मतलब बेकार का आदमी होना माना जाता है। जो लोग आलस करते हैं उन्हें सबसे बड़े लापरवाह की श्रेणी में भी रखा जाता है। करीब 80 साल पहले भारत में एक ऐसी ही आलसी क्लब की शुरुआत हुई थी। जहां एक से बड़कर एक आलसी जाया करते थे।
भोपाल में था पहला आलसी क्लब
विश्व आलसी दिवस के मौके पर भोपाल निवासी मशहूर साहित्यकार श्याम मुंशी ने देश के पहले आलसी क्लब के किस्से एएनआई के साथ साझा किए। उन्होंने बताया कि देश के पहले आलसी क्लब की स्थापना भोपाल में की गई थी। इस क्लब की शुरुआत 1940 में साहित्यकार जिगर मुरादाबादी ने की थी और वह इस क्लब के अध्यक्ष भी थे। इस क्लब का नाम दार उल कोहला रखा गया। क्लब में एक से एक काहिल और आलसी लोग जुटते थे।
आलसपन में आग लग पर बुझाई नहीं
आलसपन की हद क्या होती है। इसको एक हकीकी घटना से जानते हैं। एक बार क्लब में जुटे एक साहित्यकार सदस्य ने आलसपन की वो हद दिखाई कि क्लब के मेंबर आश्चर्यचकित रह गए। दरअसल, आलसपन में सदस्य हुक्का पी रहे थे कि तभी नीचे बिछी दरी ने आग पकड़ ली। सदस्य ने आलसपन में आग को बुझाया तक नहीं। बाद में पहुंचे दूसरे सदस्य ने धुएं से भर चुके कमरे की आग बुझाई और दरवाजे खिड़कियां खोलकर धुआं बाहर निकाला।
लेटे लेटे ही होती थी शेरो-शायरी
साहित्यकार श्याम मुंशी ने बताया कि भोपाल के लोगों का एक मिजाज रहा है कि वो कोई भी काम आराम से बिना आपाधापी के करना पसंद करते हैं। इसी वजह से कुछ उभरते साहित्यकारों ने 1930-1940 के आसपास काहिलों के क्लब को बनाया था। यहां शेरो—शायरी का लंबा दौर चलता था, लेकिन सबकुछ लेटे लेटे ही होता था। अत्यधिक जरूरत होने पर खाने पीने के लिए उठा जा सकता था लेकिन अध्यक्ष के हुक्म पर ही।
मेंबर बनने के लिए तकिया लाना अनिवार्य था
साहित्यकार श्याम मुंशी बताते हैं कि क्लब रात 9 बजे से रात 3 बजे तक ही खुलता था। हर मेंबर को रोजाना हाजिरी देनी होती थी। लेटा हुआ मेंबर बैठे हुए को और बैठा हुआ मेंबर खड़े हुए को हुक्म दे सकता था। आलसीपन का आलम ये था कि कोई काम न बता दे इसलिए लोग लेटे लेटे या फिर लुढ़के लुढ़के ही अंदर आते थे। क्लब की मेंबरशिप के लिए सिर्फ एक तकिया लाना होता था।…NEXT
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