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हिंसा के विरोध में हिंसा-एक कुकर्म

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हमारे देश भारत का अभिन्न अंग असम पिछले कई दिनों से नफरत और अन्धधार्मिकता की आग में जल रहा है, अपने-अपने घरों में बैठकर कुछ ख़बरों को पढ़कर हम उस स्थिति का सही-सही अंदाजा भी नहीं लगा सकते जो की अब तक असम वासियों ने भुगती है, वासी शब्द का प्रयोग इस लिए किया क्योंकि इसमें असम के मूल निवासी और कुछ अवैध रूप से भारत में रह रहे बांग्लादेशी सभी शामिल हैं I किसी व्यक्ति को भारत की नागरिकता प्रदान करने या न करने का कार्य यूँ तो हमारी सरकार का ही है तथा नागरिकता प्राप्त करने के लिए अन्य देशियों को कुछ निश्चित प्रक्रिया को अपनाना पड़ता है, किन्तु इस कार्य को करने में भारत सरकार द्वारा मनमाना एवं गैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है I (इसका अन्य उदाहरण सनी लियोने को नागरिकता प्रदान करने और आयुर्वेदाचार्य बालकृष्ण को जेल में डालने से भी दिया जा सकता है I ) अब उस सरकारी गैरजिम्मेदारी और असम वासियों (वासियों में सभी शामिल है) की अन्धधार्मिकता का नतीजा बहुत से निर्दोषों को अपनी जाने गवां कर तथा कई लोगों को अपनी सम्पूर्ण संपत्ति गवां कर भी चुकाना पड़ रहा है I

यह दंगा फैलना आज हमारे देश की अखण्डता को बनाए रखने पर बहुत बड़ा प्रहार है तथा इसकी निंदा हर तरह से होनी चाहिए, किन्तु जिस तरह से शुक्रवार को अलविदा की नमाज़ अदा करने के उपरान्त कई मुस्लिम उपद्रवियों द्वारा इस हिंसा के विरोध में पाशविक हिंसा का प्रयोग किया गया, यह घोर कट्टरता हमारे भारतीय समाज और उसकी एकता को पूरी तरह से तहस-नहस कर देने का इशारा कर रही है I कोई भी बुद्धिजीवी इस बात का समर्थन कभी नहीं कर सकता की कुछ विशिष्ट लोगों द्वारा अपनाई गयी हिंसा का विरोध अन्य अहिंसक लोगों पर हिंसा करके किया जा सकता है I इसमें अन्य दुखद और क्रोधित कर देने वाली बात यह की ऐसे विरोध में औरतों के कपडे तक फाड़ दिए गए, यह कार्य क्या वाकई असम हिंसा का विरोध था या उस हिंसा के विरोध में कुछ लोगों का अपनी पाशविकता को प्रकट करने का एक बहाना मात्र था?

एक तरफ इस बात का घोर दुःख है की असम में साम्प्रदायिक दंगे फैले हैं दूसरी तरफ इस बात का संतोष हुआ की ये दंगे रमजान के महीने में फैले नहीं तो आज तक न जाने कितने ऐसे निर्दोष लोगों को भी उन दंगों की जलन और हिंसा को सहन करना पड़ता जो उससे कोसों नहीं बल्कि सैकड़ों मील दूर हैं I क्योंकि रमजान के पवित्र महीने में मुस्लिमों द्वारा हिंसा और गाली-गलौच सब हराम है, उसके बाद कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम धर्म के नाम पर चाहे कुछ भी करें उन्हें रत्ती भर भी गुरेज नहीं होगा की उनके इस कार्य से निर्दोष लोगों पर अत्याचार होगा I होता है तो हो उनका अल्लाह और मोहम्मद शायद उनकी इन हरकतों से खुश हो जाएगा ! क्या वाकई? कुछ मुस्लिमों की इस कट्टरता का जवाब देने के लिए कई हिन्दू कट्टरपंथी भी किसी निर्दोष मुस्लिम पर आक्रमण करने और उनका खून बहाने को सही ठहराने लगे हैं, इस अंधी कट्टरता का क्या अंजाम होगा, इससे किसी को कोई मतलब नहीं रह गया है I

कुछ दिन पहले मुंबई में और देश के अन्य हिस्सों में पूर्वोत्तर वासियों पर हमले हुए, शायद उस हिंसा में रोज़ा रखने वाले लोग शामिल न हुए हों या शायद उनके दिमाग में ये बात आ गयी हो की रमजान में भी ऐसे लोगों पर हमला करना बुरा नहीं होगा, जिनके भाई-बंधू उनके भाई-बंधुओं पर ज़ुल्म कर रहे हैं I कौन से भाई-बंधू? किसी को भाई-बंधू मानने का क्या पैमाना होता है? क्या जो आपके धर्म का है वही आपका भाई-बंधू है और जो आपके साथ आपके पड़ोस में रहता है वह आपका भाई-बंधू नहीं है? अगर किसी को भाई-बंधू बनाने का आपका यही पैमाना है तो बिना कोई देरी किये हुए ऐसे मुस्लिमों को भारत छोड़ कर अपने भाई-बंधुओं के देश चले जाना चाहिए और उनके साथ प्यार से रहना चाहिए I आप जिस भूमि पर पैदा हुए, जिस भूमि में उपजे अन्न और जल से आपका पालन-पोषण हुआ आप उस भूमि को यदि अपना नहीं मानते, यदि उस भूमि के समस्त निवासी-आवासी आपके भाई-बंधू नहीं हैं बल्कि सिर्फ ऐसे लोग जो आपके ही धर्म के मानने वाले हैं तो सचमुच ऐसे लोगों को अपने भाई-बंधुओं के देश में ही जाकर रहना चाहिए, जहां सिर्फ उनके ही भाई-बंधू हो अन्यथा भारत देश को तहस-नहस होने से कोई नहीं बचा सकता है I कल को ऐसे ही लोगों में से कई इस देश के विभिन्न विभागों में नौकरी करेंगे कुछ सेना में भी जायेंगे, तब क्या ऐसे लोगों से हम इमानदारी की उम्मीद कर सकेंगे?

मेरा अगला प्रश्न प्रत्येक भारत वासी से है न की किसी धर्म विशेष के लोगों से की जब समस्त प्रकार के दंगों की मूल जड़ में ये विभिन्न प्रकार की साम्प्रदायिकता ही आती है तो आप अपने बच्चों को ऐसे संस्कार क्यों देते हैं की उनके ह्रदय में किसी सम्प्रदाय विशेष के लिए अथाह अंध भक्ति और अन्यों के खिलाफ घृणा की भावना आ जाती है ? क्या आप नहीं समझते की इन लड़ाई-दंगो का हांसिल मरने के बाद जन्नत नहीं बल्कि जीते जी नर्क का जीवन जीना है I

मुझे किसी धर्म विशेष से कोई लगाव नहीं है, जो कृत्य सीधे-सीधे इंसानियत के खिलाफ हैं उनका विरोध करना मैं अपना फ़र्ज़ समझता हूँ, ऐसे कृत्य चाहे जिस धर्म विशेष के लोगों द्वारा किये गए हों, मेरी नज़र में वे “इंसानियत के दुश्मन” हैं I क्योंकि समस्त धर्म इंसानों के बनाए हैं और इंसान उसका बनाया हुआ है जो सबके परे है I

इन पंक्तियों के साथ लेख समाप्त करना चाहुंगा-

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“जब फैलते हैं दंगे तो बहुत से लोग डरते हैं,

कुछ दोषी और बहुत से निर्दोष मरते हैं,

राजनीति करने वाले तो सत्ता के लोभी हैं

कोई ये तो बताये कि लोग आपस में क्यों लड़ते हैं?

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कौन सा धर्म रहेगा जिंदा जब इंसान ही न होंगे?

इंसानियत मर जाए ऐसा काम क्यों करते हैं?

कोई ये तो बताये कि लोग आपस में क्यों लड़ते हैं?

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बहुत से कट्टरपंथी मेरी बातों से असहमत हो सकते हैं, लेकिन जिस राह पर चला हूँ किसी के डर से उसे छोडूंगा नहीं I

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