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कोरोना ने हम सभी प्राणीयो को झकझोर कर रख दिया है। सब जगह शांति है। मगर उस शांति के अंदर एक ऐसी प्रलय की आहट, जो हम सबको सुनाई नहीं दे रही। एक भयंकर प्रलय का रूप है कोरोना । यह मानव जाति के द्वारा किए गए प्रकृति के विरुद्ध, किए गए कार्य है। जब प्रकृति त्रस्त हो गई, तब उसने अपना विकराल रूप धारण किया। जो कोरोना के रूप में उभर कर आया।मानव अपने भौतिक सुखों की आसक्ति में,प्रकृति का तिरस्कार करने लगा था, कि प्रकृति को अपनी व्यवस्था खुद करनी पड़ी।
प्रकृति छोटे-छोटे रूपो में हमें समझती रहती है,जैसे बाढ़, भूकंप, जल की कमी का होना,ज्वालामुखी फटना, सुनामी आना, तूफान आना, बिजली का गिरना, ऐसे ही अनगिनत त्रासदी हमारे जीवन में होती रहती है, लेकिन फिर भी हम सचेत नहीं होते, और किसी ना किसी रूप में प्रकृति को नुकसान पहुंचाते रहते है। प्रकृति इस बात को समझाने का प्रयास किसी न किसी रूप मे करती रहती है। प्रकृति क्या है? ये जीवनदायिनी है और जब जीवनदायिनी को ही कष्टों से गुजरना पड़े। तब वह विकराल रूप धारण करती है। मानव के अतिरिक्त कोई भी जीव प्रकृति को इतना क्षति नहीं पहुंचाता। जितना की मानव। मानव को ईश्वर ने एक ऐसी अद्भुत शक्ति दी है। जिसे हम बुद्धि कहते है। मगर इसका सदुपयोग हम कम करते है, और दुरुपयोग अधिक।
हम इसका उपयोग सिर्फ अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु करना चाहते है। हमें किसी के लाभ हानि से कोई मतलब नही। जीवन जीने के लिए क्या आवश्यकता से अधिक किसी भी भौतिक वस्तु को संजोना ठीक है। लेकिन हम आज यही कर रहे है। जिसकी जरूरत भी हमें नहीं है। उसकी आशक्ति हमें ना जाने कितनी मानसिक पीड़ा से गुजार रही है,और इस कारण हमारे भीतर उपद्रव पैदा होते है।जो हमें अपनी बुद्धि का नियंत्रण खोने पर मजबूर करते है।
आज पूरा विश्व कोरोना की चपेट में है। किसी के पास कोई इलाज नही।हर आदमी अपनी मदद खुद करने में जुटा है। कि कैसे इस बीमारी से निजात मिले। मिलेगी समय के साथ, प्रकृति अपना बैलेंस खुद कर रही है। जब बैलेंस हो जाएगा। तो वह खुद शांत हो जाएगी। क्या आज एक आम आदमी हो या खास सब की मानसिक स्थिति एक जैसी नहीं है। हर आदमी त्रस्त है। कोई कोरोना से और कोई कोरोना के कारण। कोरोना ने हर आदमी को अंदर से झकझोर कर रख दिया है।
प्रकृति की अवहेलना जब जब होगी,
तब तब मैं विकराल रूप धारण करूंगी ।
ना सम्भल पाओगे तुम मेरे बिन,
सांस हूं मैं तुम्हारी ।
रक्षा करो अपनी सांसो की ,
यही है प्रकृति तुम्हारी जीवनदायिनी मां।
डिस्क्लेमर : उपरोक्त विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। जागरण जंक्शन किसी भी दावे या आंकड़े की पुष्टि नहीं करता है।
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