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सुना है महंगाई के साथ-साथ सरकार ने आत्महत्या के भी दाम बढ़ा दिए है

Jeet jayenge Hum
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राष्ट्र हित में कुछ करने की चाह कल भी थी, आज भी है और जब तक रहेगी, जबतक मेरे शरीर में राष्ट्र सरंचित रक्त का एक-एक कतरा राष्ट्र को समर्पित न हो जाए। उक्त लाईने किसी शायर की हो सकती है। लेकिन मैं कोई शायर नहीं हूं। और ना ही मैंनं ये लाईने अपने आप को शायर कहलाने के लिए प्रयोग की है। ऐसी मेरी सोच थी और आज भी है। समय की मार ने मुझे आज ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया है कि मैं अब सोचता हूं कि पीपली गांव का नत्था दास मणिकपुरी जांऊ। पत्रकारिता की दुनिया में अनोखी पहचान बना चुके रवीश कुमार की रिपोर्ट ‘‘कुश्ती गरीबी से लड़ना सीखा देती‘‘ बिलकुल सत्य थी। वाक्य ही कुश्ती उस ईलाके में उन जैसे लोगों के खेल के प्रति जज्बा ही था शायद उन्हें गरीबी से लड़ना सीखा देती है। रवीश भाई कुश्ती का तो पता नहीं क्योंकि कभी खेली नही है हां आर्थिक मंदहाली के चलते इतना जरूर मालूम हो गया है कि ‘‘गरीबी जिंदगी जीना सीखा देती है‘‘। बचपन से ही राष्ट्र के लिए कुछ करने की चाह रही है। मेरी उम्र करीब 20 वर्ष की है और इस उम्र में आते-आते आर्थिक हालातों ने मुझे जीना सीखा दिया है और जिंदगी में एडजस्ट करना भी सीख लिया है। मेरी 12वीं तक की शिक्षा लटकते-लटकते हुई है। पढ़ाई में अच्छा था इसलिए टीचरों का भी हमेशा प्यार और सहयोग मिलता रहा। गांव का हूं तो घरवालों की हमेशा उम्मीद रही की 12वीं पास कर हमारा बेटा नौकरी लग आर्थिक मंदहाली से निकालेगा। लेकिन बेटे के मन में कुछ और था। वो(मैं) कुछ और ही बनना चाहता था। मैं पत्रकार बनना चाहता था। वो भी टीवी पत्रकार। इसलिए मैंने महाविद्यालय की बजाए विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया ताकि जल्दी से पत्रकार बन जांऊ। कॉलज के मुकाबले युनिवर्सिटी की फीस काफी ज्यादा है। लेकिन मैंने जैसे-तैसे करके घरवालों को मना लिया। अब बस दाखिला लेते ही कुछ करने का मन था। मैंने पत्रकारिता की बारिकियां सीखनी भी शुरू कर दी थी। मैंने पढ़ाई के लिए शिक्षा ऋण ले रखा है। लेकिन आज द्वीतीय वर्ष के दूसरे समैस्टर की फीस जोकि दस हजार रूपये है, नहीं भरी जा रही है। क्योंकि मैंने एक ऐसा फैसला कर लिया कि मेरे दस हजार जो मुझे बैंक ने दिए थे डूब गए। मेरे एक फैसले ने मेरा सारे सपने अधूरे से कर दिए है। आज हम परिवार वालों के साथ शायद बुरा वक्त चल रहा है। विद्यार्थी जीवन की आर्थिक मंदहाली का वर्णन भी में नही कर सकता। कोई विद्यार्थी पांच रूपए लेकर क्या युनिवर्सिटी जाएगा, जोकि बस किराया भी कम हैं? वो तो शुक्र भगवान का की निजी बस वाले मेरे दोस्त बन गए। नहीं तो बिन रूपए जाने वाला पहला विद्यार्थी होता। लेकिन मैं और कर भी क्या सकता था। ऐसे में अगर कोई दोस्त चाय का कहता है तो उसके साथ चाय भी नहीं पी सकता क्योंकि अगर गलती से मेरे मुंह से ये निकल गया कि पैसे मैं दे देता हूं तो कहा से दूंगा। घर की अपनी जमींन न होने पर हमें दूसरों की जमीन हिस्से पर लेनी पड़ रही है, जिसमें घर का गुजारा भी बड़ी मुरिूकल से होता है। भाई भी इंजिनियरिंग का डिप्लोमा कर रहा है जिसकी फीस मेरे से भी ज्यादा है। मैंने प्रिंट मीडिया और इलेक्टॉनिक मीडिया का काम सीख लिया है और कुछ और सीखने की भी कौशिश कर रहा हूं। क्योंकि मैंने छुट्टियों में यह सारा काम युनिवर्सिटी और लोकल मीडिया से सीख लिया था। अब जाहिर सी बात है कि सीख लिया है तो किसी समाचार पत्र और चैनल में काम भी मिल जाना चाहिए। मिल भी रहा लेकिन मुफ्त। अब सच्ची पत्रकारिता करूंगा तो शायद ये मुफ्तवाला सौदा भी छूट सकता है। ऐसे स्थिति में घर वालों के सपने जल्द पूरे होते नहीं लग रहे है। क्योंकि वक्त रहते मैंने फीस नही भरी तो घर पर भी बैठना पड़ सकता है। लगता है ऐसे हालात में मुझे अब नत्था दास मनिकपुरी बन जाना चाहिए। सुना है महंगाई के साथ-साथ सरकार ने आत्महत्या के भी दाम बढ़ा दिए है। कम से कम सरकार आत्म हत्या पर एक लाख रूपए तो देगी ही देगी शायद कुछ बोनस भी मिल जाए। इस पैसे से भाई की पढ़ाई और मेरा लिया हुआ कर्ज तो चुकता हो जाएगा जिससे शायद पापा की टैनशन कम हो जाए। मीडिया का छात्र हूं तो अंतिम ईच्छा भी किसी मीडिया वाले से मिलना होगी। फिर क्या पता नत्था(प्रमोद) मरेगा सुन कर रवीश कुमार भी आ जाए पता लगाने के लिए की आखिर प्रमोद कैसे नत्था बन जाना चाहता है। चैनल और अखबार वालों का हफ्ता निकल जाएगा और शायद प्रमोद की आखिरी बार रवीश कुमार से मुलाकात हो जाएगी।
प्रमोद रियालिया

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