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मत रूठो मॉनसून ….

पराग
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रूठना… तीन अक्षरों का ये छोटा सा शब्द व्यापक असर करता है. भारतीय समाज में रूठने का बहुत महत्व है. रूठने वाले को समाज में बहुत इज्ज़त मिलती है… यानि जिसकी जितनी रूठने की शक्ति…उतनी ही ज्यादा उसकी इज्ज़त और उतना ही उसका रौब.
रूठने वाले लोग हमेशा मौकों की तलाश में रहते हैं कि कब उसका दाव लगे और कब वो रूठे. जीवन के हर क्षेत्र और समाज के हर स्तर पर रूठने-मनाने का उपक्रम चलता रहता है. हमारे एक फूफा हुआ करते थे. आगरा वाले फूफा…रूठना उनका एक शगल था. उनका ये शगल उनकी ससुराल यानी हमारे घर में आकर ज्यादा जोर मरने लगता था. वरना उनके अपने घर में न तो वे रुठते थे… और अगर रूठ भी जाते थे तो कोई मनाता न था. लेकिन हमारे घर में शादी-ब्याह के मौकों पर वे ज़रूर रूठ जाते थे. कभी खातिरदारी को लेकर…तो कभी नेग के चक्कर में. रूठने के स्वभाव के चलते उनकी ससुराल में काफी पैठ बन गई थी. हालत ये थी कि जब आगरे वाले फूफाजी आते थे.. तो हमारे घर में राष्ट्रपति शासन सा लग जाता था. घर के बच्चों को उनके सामने नहीं आने दिया जाता था…न जाने कब उन पर नाराज हो जाएँ. इसके अतिरिक्त उनके खाने-पीने से लेकर सोने तक उनका विशेष ध्यान रखा जाता था. जबकि हमारे छोटे फूफा को हम कोई घास नहीं डालते थे..क्योंकि वे सरल स्वभाव के थे.
वैसे रूठने और मनाने के भी अपने मजे हैं. रूठना हमारी संस्कृति का अजीबोगरीब मगर दिलचस्प हिस्सा है. हमारी पत्नी हमारे वैवाहिक जीवन के अल्पकाल में न जाने कितनी बार रुठ चुकी . उनको मनाने के लिए हमे भी ना जाने कितने जतन करने पड़े. न चाहते हुए भी शोपिंग करानी पड़ी… खर्चा करना पड़ा. अमोल पालेकर की सुस्त रफ़्तार फ़िल्में दिखानी पड़ी(अमोल पालेकर हमारी श्रीमतीजी के फेवरेट जो हैं.) मगर जब वो मान जाती… तो लगता जैसे जीवन सफल हो गया…तपती दुपहरी में ठंडी फुहार की तरह का अहसास होता…. राजनीती में तो रूठने के उपर सरकारें हिल जाती हैं. निजाम बदल जाते है…… जनता जब रूठी तो कांग्रेस का क्या हुआ, हम सब जानते हैं. फिल्मों में तो रूठने पर कवियों ने लम्बे लम्बे गीत रच डाले.”तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूँ…रूठे-रूठे पिया मनाऊँ कैसे……” यानी रूठना हमारे जीवन में भीतर तक रचा बसा है.
इधर रूठने की एक और खबर आ रही है..दिल्ली के मौसम विभाग से. खबर यह है कि अपनी आदत के मुताबिक मानसून एक बार फिर रूठ गया है. ठीक किसी बेवफा प्रेमिका की तरह. जैसे वादा करने के बावजूद रूपसी प्रेयसी निर्धारित समय पर नहीं आती..ठीक उसी तरह मानसून भी नखरे दिखा रहा है. पहले कहा गया था कि आज आयेंगे…. फिर कहा…कल आयेंगे… लेकिन अभी तक नहीं आया मानसून. हलक सुख रहे हैं…कुँए-तालाब रीते पड़े हैं…..धरती अकुला रही है…..फिर भी नहीं आ रहा मानसून.. पता चला है कि किसी निर्जन स्थान पर अटका बैठा है…..हम सब से खफा…… बिलकुल मेरे आगरा वाले फूफाजी कि तर्ज पर….. कह रहा है कि नहीं आऊंगा ….तब तक नहीं आऊंगा जब तक हम सब अपना रवय्या या आचरण नहीं सुधारते. तो भैय्या मानसून की कही बात मान लो.रवय्या सुधार लो… रवय्या सुधारना मतलब प्रकृति से खिलवाड़ मत करो….यज्ञ-हवन की परम्परा को पुनर्जीवित करो….पेड़-पौधों को नष्ट मत करो…………आदि आदि
याद रखना भाइयों..फूफा रूठ जाये कोई बात नहीं…बीवी रूठ जाए…चलेगा…..नेता रूठ जाए…कोई गल नहीं…..दुनिया रूठ जाये फिकर नोट….लेकिन….लेकिन अगर मानसून रूठ गया…..तो…तो आप खुद समझदार हैं. किसी तरह मनाओ मानसून को……

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