लो साहब, आखिरकार मोदी जी को भाजपा ने अपना तारणहार चुन ही लिया। ये तो होना ही था और ये होना भी चाहिए था। आखिर पिछले दस सालों में मोदी की परफोर्मेंस ने उन्हें देश के कद्दावर नेता में परिवर्तित कर दिया है. खासकर पार्टी में तो उन जैसे जनाधार वाला नेता कोई आज दिखाई नही देता। ऐसे में जनभावनाओं और कार्यकर्ताओं की पसंद को नजरअंदाज करना शीर्ष नेतृत्व के भी बस में नही था। सो बुझे मन से ही सही पार्टी के बड़े नाम वाले नेताओं ने भी कार्यकर्ताओं के सुर में सुर मिलाना ही उचित समझा।
लेकिन हमारे बुजुर्ग और काबिल नेता आडवानी जी का क्या करें, जिन्हें नये दौर की बातें समझ में ही नहीं आ रही। शुक्रवार को आडवानी जी ने जो किया वह पार्टी के हित में तो है ही नही लेकिन इस घटना ने आडवाणी जी का कद भी छोटा किया है. क्या ये अच्छा नही होता कि पार्टी के संस्थापक सदस्य होने के नाते उन्हें अपना दिल बड़ा करना चाहिए था और अपनी अगुवाई में मोदी का समर्थन करना चाहिए था। आडवानी जी जो कदम आजकल उठा रहे हैं उसके कारण उनकी छवि एक सत्तालोलुप (माफ़ कीजियेगा ) नेता के रूप में ही उभरकर आयी है. 85 से उपर का होने के बावजूद देश का पीएम बनने की जो मह्त्वाकांशा उनके अंदर है वह अब देश के लोगों को स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है. यह उनकी हठधर्मिता ही है जिसके चलते उनकी छवि पर प्रतिकूल असर पड़ा है. आने वाले समय में निश्चित रूप से पार्टी और देश द्वारा उन्हें भुला दिया जायेगा जो बड़ा दुखदायी होगा। ऐसे में हम तो ये ही चाहेंगे कि भगवान् उन्हें सदबुद्धि दे . क्या उन्हें सदबुद्धि आयेगी
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