लीजिये एक बार फिर हिंदी दिवस ने अपने आने की दस्तक दे दी है. एक बार फिर माहौल में हिंदी और हिन्दियत घुस गई है हिंदी दिवस मनाने के लिए सरकारी विभाग आतुर हैं तो निजी संगठन भी अधीर हुए जा रहे है. सब में हिंदी दिवस की होड़ है. सितम्बर आते ही देश में हिंदी का शोर शुरू हो जाता है. चहुँ और हिंदी का महिमा मंडन और हिंदी की दशा को लेकर रुदन कार्यक्रम। वैसे भाई लोगों ने हिंदी दिवस का समय भी बहुत सोच समझकर रखा है. इधर हिंदी दिवस आता है उधर श्राद्ध पक्ष शुरू हो रहे होते है। इधर लोग अपने परिजनों को तर्पण करते हैं, उधर हिंदी के ठेकेदार हिंदी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। कहीं हिंदी पखवाडा मनता है तो कहीं हिंदी सप्ताह। हिंदी को लेकर इस ख़ास समय में ही कार्यक्रम क्यों आयोजित होते हैं? क्यों नही पूरा साल हिंदी की चिंता की जाती? इतनी चिंता किये बाद भी हिंदी का स्तर क्यों नहीं उठ रहा है? सच तो ये है कि हिंदी की इस दशा का मुख्य कारण हिन्दीदां लोगों का ढोंग है . दिखाने भर और अपना रौब ज़माने के लिए हिंदी के ठेकेदार हिंदी दिवस पर विशेष कार्यक्रम तो आयोजित कर लेते हैं, लेकिन ये कार्यक्रम पाखंड का पुलिंदा बनकर रह जाते हैं न तो इन कार्यक्रमों से आम लोग जुड़ पाते हैं और ना ही कुछ सार्थक सम्वाद इन आयोजनों से निकलता है. इन कार्यक्रमों में कोई गंभीर चिंतन नहीं होता केवल इंग्लिश को गाली देने की औपचारिकता के साथ ही ऐसे कार्यक्रम सम्पन्न हो जाते है। हिंदी के प्रेमी घट रहे हैं , ये चिंता तो सब करते हैं, लेकिन इसकी दशा सुधारने के लिए उनके पास क्या कार्यक्रम या योजना है ये कोई नहीं बताता। वक्ता गण हिंदी के बारे में लम्बे-लम्बे दावे करते हैं , लेकिन खुद हिंदी का कितना और कितनी देर उपयोग करते हैं, यह नही बता पाते. क्यों अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाकर गौरवान्वित होते हैं, इसका जवाब उनके पास नहीं। क्या बुद्धिजीवी क्या सरकार क्या विपक्ष सभी केवल हिंदी दिवस कार्यक्रम को एक औपचारिकता के रूप में लेते हैं। इधर कार्यक्रम सम्पन्न उधर हिंदी के समर्थकों की हिंदी के प्रति चिंता भी सम्पन्न। इधर सितम्बर सम्पन्न उधर सरकारी दफ्तरों में “यहाँ हिंदी में काम होता है” जैसे सुभाषित वाक्य का अर्थ भी ख़त्म . यानी खेल खत्म और पैसा हजम ऐसे में हिंदी का क्या होगा ? आप समझ सकते है, है ना
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