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अभी भी धरती पर लोग है.

भविष्य
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shakti Mandir अभी भी धरती पर लोग है.

Shakti Mandir 1 अभी भी धरती पर लोग है.

मै आगे अभी कुछ भी लिखूं उससे पहले मैं अपने परम श्रद्धेय गुरुवर पंडित राय जी से क्षमा याचना चाहता हूँ. यद्यपि मुझे मालूम है मेरे इस क्षमा याचना के बावजूद भी वह नाराज़ होगें. लेकिन बहुत सोचने और अपने आप को बहुत रोकने के बावजूद भी यह लिखना पडा.
एक फौजी वास्तव में बहुत जीवट होता है. और सही रूप में एक ऐसा मर्द होता है जिसे दर्द नहीं होता. और यदि दर्द हुआ भी तो उसे भगवान शंकर की तरह हलाहल के रूप में कंठ में धारण कर लेता है. अब गुरु जी भी पता नहीं कंठ में धारण किये या उदरस्थ कर गए.
मै लेखा विभाग के सर्वेक्षण टीम के साथ गया हुआ था. नज़दीक होने के कारण सोचा क़ि मैं गुरु जी के गाँव से भी होता चलूँ. क्योकि मुझे पता था क़ि वह एक मंदिर निर्माण करा रहे है. उत्सुकता थी. मै पूछते हुए अपने तीन चार और सहकर्मियों के साथ उस स्थान पर पहुँच गया. हम उनके घर पहुंचे. घर तो उनका इतना बड़ा है क़ि उसमें दो विद्यालय एक साथ चल सकते है. लेकिन मुख्य दरवाजे पर ताला बंद था. पूछने पर पता चला क़ि गुरूजी कभी कभार ही थोड़े दिनों की छुट्टी लेकर घर आते है. और फिर चले जाते है.
घर के सामने ही एक अति प्राचीन ज़र्ज़र कूंवा है. उसमें से बरगद, पीपल एवं अन्य पौधों की झाड़ियाँ निकली हुई है. उसके चारो तरफ अभी नयी मिट्टी भरवाई गयी है. बहुत दूर में मिट्टी भरवाई गयी है. उसके उत्तर तरफ किसी का खेत है. संलग्न चित्रों से शायद स्पष्ट हो जाय. जब हम लोग वहां पर पहुंचे तो उत्सुकता वश और आठ दस लोग वहां इकट्ठा हो गए. लोगो ने सोचा शयादा हम लोग कोई सरकारी कर्मचारी है. तथा उस मंदिर वाली ज़मीन के सम्बन्ध में आये है. हमने भी उनसे पूछना शुरू किया. इलाका ग्रामीण होने के कारण बहुत से विचार वाले लोग मिले. और तरह तरह की बातें करने लगे. किन्तु एक अति वृद्ध व्यक्ति जो हरिजान विरादरी के थे तथा एक राजभर बिरादरी के थे, उन्होंने जो तथ्य बताये वे बड़े ही विचित्र एवं रोचक लगे.उनके द्वारा जो जानकारी सामने आयी वह इस प्रकार है.
वह कूंवा गुरूजी का पैतृक कूंवा है. यह मुख्य रास्ते पर होने के कारण लोग यहाँ बैठ कर आराम भी करते थे. वहा पहले एक आम एवं एक नीम का पेड़ भी हुआ करता था. लोग गर्मी के दिनों में रास्ते से चलते हुए जब उधर से गुजरते थे तो उसी कुँवें का पानी पीते थे. तथा पेड़ के नीचे विश्राम भी करते थे. इस कुँवें पर एक ताम्बे का गागर एवं एक रस्सी बराबर रखी रहती थी. गुरूजी के पिता जी का यह आदेश था क़ि गुड दरवाजे पर बराबर रखा रहना चाहिए. ताकि कोई पानी पीने आये तो उसे गुड दिया जा सके. आम के पेड़ तथा नीम के पेड़ के नीचे बीच में एक पशुओं को खिलाने का लंबा सात आठ हौद बना हुआ था. उस हौद का नाम वे लोग स्थानीय भाषा में पता नहीं क्या बता रहे थे, मुझे याद नहीं है. एक बहुत बड़ा लगभग सात फुट ऊंचा तथा पांच फुट के करीब ऊंचा पत्थर की शिला थी. उस पर बड़े ही सुन्दर तरीके से महीन चित्रकारी की गयी थी. अब चूंकि हम तो केवल वहां पर दो ढाई घंटे ही रुके थे. किन्तु वे ही लोग बताते थे क़ि यह शिला एक देवता का रूप है. संधिवात, गृधश्री, सियाटिका आदि किसी भी तरह के वात व्याधि से पीड़ित भयंकर दर्द से कराहते हुए पुराने एवं लाइलाज़ मरीज़ बहुत दूर दूर से आते थे, इसके अलावा आमवात, अपस्मार, अर्द्धकपारी, मानसिक विकलता, प्रक्षिप्त तथा मृगी के कठिन रोगी भी यहाँ आते थे. तथा तीन दिन यहाँ रुकते थे. खाने पीने की सारी व्यवस्था गुरूजी के घर से ही होती थी. वैसे बाहरी दृश्य से ही यह आभास हो जाता है क़ि यह परिवार एक बहुत ही यशस्वी, ज़मीदार एवं संपन्न परिवार था. खैर , लोग रात को करवट उसी शिला पर सोते थे. बच्चो को तो सोते समय रजाई आदि ओढ़ने की अनुमति थी. किन्तु अन्य लोगो को बिना किसी ओढ़ने के ही सोना पड़ता था. हम तो यह सुन कर ही अकड़ गए. जाड़े का दिन. ऊपर से ठन्डे पानी से नहाना. तथा उस सर्दी में बिना किसी ओढ़ने के खुले आकाश के नीचे सोना. हम तो बिलकुल ही सिहर गए. पहले दिन एक करवट, दूसरे दिन दूसरे करवट तथा तीसरे दिन मुंह के बल सोना पड़ता था. और चौथे दिन उनका रोग समूल ठीक हो जाता था. प्रातः काल उस मरीज को स्वयं उस कुँवें से पानी निकाल कर उसी पानी से नहाना पड़ता था. चाहे गर्मी हो या जाड़ा. अक्सर ये बीमारियाँ जाड़े के दिनों में ज्यादा तकलीफ देती है. और जाड़े में ही लोग यहाँ आते थे. अब आप अनुमान लगा सकते है क़ि जाड़े के दिनों में कुँवें के पानी से खुले में नहाना, वह भी स्वयं रस्सी एवं गागर से पानी निकालना. और सबसे बड़ी बात यह क़ि मरीज होने के बावजूद भी स्वयं बिना किसी के सहयोग के. नहाने के बाद ही उस शिला पर सोना. वह भी कड कडाती जाड़े की रात. फिर सुबह उठ कर नहाना. नहाने के बाद उस पत्थर शिला को कुँवें के ही पानी से सफाई से धोना. और उसके चारो तरफ गोबर से लिपाई करना. किन्तु फिर भी लोग करते थे. और अपनी बीमारी से मुक्त हो आते थे.
सबसे बड़ी विचित्र बात जो सामने आयी वह यह थी क़ि जिसकी बीमारी किसी तरह ठीक होने वाली नहीं होती थी. वह कुँवें से पानी नहीं निकाल पाता था. या तो रस्सी टूट जायेगी. या बंधन खुल कर गागर कुँवें में गिर जाएगा. या वह उस शिला पर सो नहीं पायेगा. तथा दर्द के मारे इतना चिल्लाएगा क़ि उसे शिला पर से उतरना पड़ जाएगा. और वह बेचारा निराश होकर वापस चला जाएगा. किन्तु लोग बताते थे क़ि ऐसा बहुत कम होता था.
कभी कभी कई आदमी महीनो रुक जाते थे. कारण यह था क़ि उस शिला पर एक साथ दो आदमी नहीं सो सकते थे. तथा कई आदमी आ जाते थे. तो बारी बारी से ही सोना पड़ता था. और जो बेचारा दूर से आया होता था, वह लौट कर घर जाकर दुबारा आ नहीं सकता था. अतः वह वही पर रुक जाता था. लोग बता रहे थे क़ि गुरु जी के दरवाजे पर रात को दश बारह बाहरी आदमी हमेशा ही रहते थे. रात को गुरूजी के पिताजी पुराण एवं वेद की कथाओं को कहते थे.
लोग बता रहे थे क़ि इंदिरा गांधी के समय में तत्कालीन रेल मंत्री कमलापति त्रिपाठी की पुत्र वधु तथा तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार की तेल मंत्री श्रीमती हर्षा त्रिपाठी जो उत्तर प्रदेश सरकार के खेल मंत्री श्री लोक पति त्रिपाठी की धर्म पत्नी भी थीं, कैंसर रोग से पीड़ित हो चुकी थीं. उस समय अभी इस रोग की कोई भी दवा इजाद नहीं हुई थी. देश विदेश में दवा कराकर सब लोग थक चुके थे. तो जब आदमी दवा से थक जाता है. तब दुवा की तरफ दौड़ता है. किसी ने इस चमत्कारी कुँवें के बारे में बताया होगा. तब उस समय उत्तर प्रदेश सरकार के पुलिस महानिदेशक रणवीर राय चौधरी स्वयं उस कुँवें से पानी ले जाने आये थे. और सुनने में आया क़ि सुश्री त्रिपाठी निरोग हो गयी.
कहा जाता है क़ि उसी गाँव में गुरु जी के दादाजी ने एक ब्राह्मण को दूसरे गाँव से लाकर बसाया था. उस गाँव में कोई ब्राह्मण नहीं था. उसे खुद की जमीन जायदाद देकर उसे बसाया. उस ब्राह्मण का नाम ज्ञानी तिवारी था. जैसा नाम था वैसा ही गुण भी था. जो बोल दिया वह ब्रह्म वाक्य बन जाता था. किन्तु वह ब्राह्मण देवता इतना ज्यादा गांजा का सेवन करते थे क़ि वह ज्यादा देर तक होश में रहते ही नहीं थे. उनका काम था दिन भर उसी कुँवें की जगत पर बैठे रहना. जो आम कुँवें में गिर जाते थे. उसे ही निकाल कर खाते थे. जब आम का सीजन ख़तम हो जाता था तो वहीं पर अमरूद के पेड़ भी थे. वह अमरूद खाकर वही पर बैठे रहते थे. खाना सिर्फ रात में खाने के लिए घर जाया करते थे.
वह दिन भर कुँवें पर बैठ कर कुँवें से बातें किया करते थे. लोग बताते है क़ि कोई कुँवें में से भी बातें करता रहता था. आवाजें कुँवें में से आती थी. बहुतो ने वे आवाजें सुन रखी थी. लेकिन जब वह अकेले होते थे तो डर के मारे कोई कुँवें पर नहीं जाता था. यही नहीं यदि कोई कुँवें में गिर गया तो उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचता था.
एक दिन पता नहीं क्या बात हुई. वह ब्राह्मण देवता उस कुँवें से बहुत जोर जोर से झगड़ा करना शुरू कर दिए. कुँवें से भी जोर जोर से आवाजें आती थी. फिर वह कुँवें से उठ कर गुरूजी के पुराने घर की दीवार से सट कर बैठ गए. और कुछ देर बाद ही उनके प्राण पखेरू उड़ गए. उस ब्राह्मण देवता का एक लड़का था. उसकी भी मौत गुरूजी के ही दरवाजे पर ही हुई.
लोग बताते है क़ि गुरूजी बचपन में बहुत ही उग्र एवं क्रूर हुआ करते थे. उनके आतंक का यह आलम था क़ि आदमी तो आदमी कुत्ते. बिल्ली एवं गाय भैंस तक उन्हें देख कर रास्ता छोड़ देते थे. या डर के मारे दूर भाग जाते थे. वह भी उसी ब्राह्मण की तरह कुँवें से बोलने लगे. किन्तु कुँवें से कोई आवाज नहीं निकली. कुँवें ने उनसे बात नहीं की. बस इनका पारा चढ़ गया. और इन्होने उस कुँवें में पशुओ का गोबर लाकर डाल दिया. लोग बताते है क़ि उस कुँवें से इतना तेज भाप एवं धुवां निकला क़ि वह नीम एवं आम का पेड़ झुलस गया. और दोनों ही पेड़ सूख गए. और तभी से उनके पशुओ में बीमारी का प्रकोप बढ़ गया. और धीरे धीरे दरवाजे से पशु लुप्त हो गए. अब केवल उनका हौदा ही याद गार के रूप में रह गया है.
गुरूजी को दरवाजे पर यह भीड़ भाड़ पसंद नहीं था. उन्हें दूसरे दूसरे लोगो का दरवाजे पर आना तथा फ्री में खाना एवं ठहराना उन्हें रास नहीं आता था. उन्हें ऐसे नाजायज खर्च से बहुत चिढ होती थी. उन्हें बहुत परेशानी होती थी. इसके अलावा नाजायज खर्च भी उन्हें पसंद नहीं था. पिताजी के डर से तो कुछ नहीं कहते थे. किन्तु घर में जाकर अपनी मा से झगड़ा किया करते थे. जब झगड़े आदि से काम नहीं बना तो वह उस कुँवें की रस्सी ही कही चुरा देते थे. या फिर कई जगह चाकू आदि से रस्सी को काट देते थे. जब किसी तरह काम नहीं बना तो एक दिन दोपहर में ही कुदाल से उस पत्थर का कोना ही तोड़ दिए. जब उस पत्थर का कोना टूटा तो इतनी जोर की आवाज हुई क़ि लोग वहां इकट्ठा हो गए. दूसरी तरफ कुँवें की दीवार भी भर भराकर कुँवें में अन्दर गिर गयी. बताते है क़ि वह पत्थर भी लुढ़क कर करवट हो गया. और तब से वह सीधा नहीं हुआ. गाँव के तथा आस पास के लोगो ने भी बहुत कोशिस किया क़ि वह पत्थर अपने पहले की अवस्था में आ जाय किन्तु वह पत्थर सीधा नहीं हुआ. उसके बाद लोगो का वहां आना बंद हो गया. उस दिन के बाद गाँव में कुछ न कुछ अनिष्ट भी होना शुरू हो गया. घर गाँव एवं परिवार से इतने अपशब्द एवं उलाहना सुनना पडा क़ि गुरूजी गाँव छोड़ कर कही चले गए. और तभी से इस परिवार का पतन भी शुरू हो गया.
बहुत दिनों बाद उस गाँव के मुखिया ने उस कुँवें की जगत ईंट एवं गारे से बनवाकर सीधा किया. वह आदमी इतना आगे बढ़ा क़ि उसके दुःख के दिन ही दूर हो गए. किन्तु जब से ग्राम प्रधान के पास वित्तीय अधिकार भी आ गए. तब उस प्रधान ने भी उस कुँवें के जीर्णोद्धार के नाम पर सरकार से पैसा ले लिया. और उसी दिन से उसका जो पतन शुरू हुआ वह आज गर्त में गिर चुका है.
बताते है क़ि दूसरे राज्य से लोग आते थे तथा उस कुँवें का जल भर कर ले जाते थे. तथा पता नहीं कितनी अन्य व्याधियो से मुक्ति पाते थे. आज भी लोग बताते है क़ि यह कुंवां बहुत ही रक्षा करता है. बिलकुल रास्ते के सटे किनारे पर ही स्थित है. पर कोई भी उससे भयंकर नुकसान नहीं हुआ. कई बार बच्चे उसमें गिर गए. किन्तु दो दिन बाद भी ठीक ठाक ही उस कुँवें से निकले. अब चूंकि गुरूजी के घर पर तो कोई रहता नहीं है. बैठका इतना बड़ा है क़ि दिन भर लडके वहां खेलते रहते है. बहुत से लोग वही पर नीचे ही सोकर आराम करते है. रास्ते में होने के कारण राहगीर भी वहां अनायास ही थोड़ी देर बैठ जाते है. गुरुजी ने इसी के चलते उस कुँवें के चारो तरफ बांस का मज़बूत घेरा खडा करा दिया.
और लोग कहते है क़ि जिस दिन गुरूजी घर वापस आये, उस दिन वह पिताजी एवं गाँव के लोगो के डर से रात के अँधेरे में घर आये थे. और उस दिन रात भर उस पत्थर के पास बैठ कर रोते रहे थे. चूंकि वह पत्थर रास्ते पर ही पड़ता था. अतः लोग आते जाते उन्हें रोते हुए देखते थे. उन दोनों में जो वृद्ध राजभर थे, वह बता रहे थे क़ि वही गुरूजी को अपने घे ले गए. क्योकि वह अपने घर में नहीं जा रहे थे. वही पर गुरूजी ने उस आदमी से कहा क़ि उस शिला को सीधा करवाईये. उस बुज़ुर्ग ने उन्हें बहुत समझाया क़ि सब लोग थक चुके है. वह सीधा नहीं होगा. लेकिन वह जिद पर अड़े हुए थे. बड़े घर के लडके की बात थी. दो तीन आदमी उसे सीधा करने आये ताकि उन्हें संतोष हो जाय. किन्तु आश्चर्य यह हुआ क़ि वह शिला सीधी हो गयी. और फिर गुरूजी के ही कहने से वही पर उस शिला को मिट्टी से ढक दिया गया. यद्यपि अभी भी थोड़ी थोड़ी वह शिला दिखाई दे जाती है.
चूंकि घर परिवार के लोग तो गुरूजी से नाराज थे ही. गुरूजी शायद उस समय बनारस पढ़ते थे. घर वालो ने उनका जबरदस्ती या लोक लाज के डर से द्विरागमन कर दिया. तथा घर से अलग कर दिया. सच्चाई क्या है, वह तो मुझे नहीं मालूम. किन्तु जो मैंने सुना वह लिख रहा हूँ. गुरूजी अपनी धर्म पत्नी को वही लेकर चले गए जहाँ वह पढ़ते थे.
यहाँ तक तो मैंने गाँव वालो से सुना था. इसके बाद का वाकया गुरूजी ने स्वयं बताया था. किन्तु उसका विवरण देना यहाँ आवश्यक नहीं है.
फिर जैसे भी हो गुरूजी ने वहां पर मंदिर बनवाने का संकल्प लिया. यद्यपि वह बताये है क़ि यह मंदिर बड़ी ही कठिनाई के बाद ही बनेगा. या संभव है नहीं भी बन सकता है. किन्तु उन्होंने काम लगाया. उन तमाम गड्ढो को भरवाने तथा सैकड़ो टाली मिट्टी भरवाने में निःसंदेह कई हज़ार रुपये खर्च हो चुके है. और अब फिर वही बाधा सामने आ गयी है.
उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के बाद गाँव के ही कुछ दबंगों ने लेखपाल पटवारी आदि से मिल कर तथा बिरादरी की आवाज बुलंद कर उस मिट्टी के घेरे से अच्छी तरह घिरे उस कुँवें समेत समस्त ज़मीन को अपने खेत में नपवा लिया है. यद्यपि गाँव वाले छिपे तौर पर उन दबंगों का विरोध कर रहे है. किन्तु सत्ता आज उसी बिरादरी की है. इसलिए कोई खुल कर कुछ नहीं कह रहा है.
यद्यपि इस कुकृत्य से उन दबंगों का बहुत नुकसान हुआ है. बहुत ज्यादा नुकसान. आर्थिक से लेकर जनहानि तक अनेक नुकसान हुआ है. किन्तु वे इसे नज़र अंदाज़ करते चले जा रहे है. खैर जो भी हो,
गुरूजी का यह बहुत बड़ा सपना था. शायद आज भी वह निराश नहीं है. किन्तु एक बात आज से बहुत पहले उन्होंने फोन पर कही थी.
“पाठक जी, मेरे हाथो यश नहीं है. मै कोई भी भलाई का काम नहीं कर सकता. यदि भला करने भी चलता हूँ तो बुरा ही होता है. संभवतः अभी सितारे गर्दिश में ही चलते रहेगें. क्योकि मैंने अपने पिताजी एवं बुजुर्गो के द्वारा स्थापित परम्परा का बहिष्कार करना चाहा था. और ज्ञानी बाबा ने यह भी कहा था क़ि जब तुम रसाला मंदिर बनवाओगे. तब लोग यहाँ आयेगें. और बहुतो का भला होगा. तब तुम्हें सच्ची सुख एवं शान्ति मिलेगी. किन्तु अब लग रहा है क़ि यह बहुत कठिन है.”
गुरूजी ने कारण बताया क़ि उन्होंने एक विद्यालय शुरू किया. पढ़ाई का स्तर बहुत ऊंचा था. हम ने स्वयं जाकर उस विद्यालय को देखा. लोग बताते है की गुरु जी की बौद्धिक क्षमता विलक्षण थी. उनकी विद्या का लोहा उनके शिक्षक भी मानते थे. उस विद्यालय में पढ़ाई के स्तर को देख कर लोग विविध विद्यालयों से नाम कटवाकर अपने लड़को का नाम उस विद्यालय में भेजना शुरू किया. पढ़ाई की गुणवत्ता को देख कर दूर दूर तक के लोग अपने बच्चो को वहां पढ़ने के लिए भेजने लगे. बच्चो की संख्या इतनी बढ़ गयी क़ि अब उनके रहने की समस्या आ गयी. गुरु जी के पैतृक निवास में पहले से ही लड़कियों का सरकारी विद्यालय चलता था. पता नहीं कितने सालो से वह कन्या विद्यालय चलता था. अब उसमें यह विद्यालय चलाना मुश्किल हो गया. तब गुरूजी गाँव गाँव घूम कर गन्ने एवं सरकंडे के पत्ते मांगना शुरू किये. लोग बताते है क़ि उन्होंने स्वयं अपने सिर पर पत्तो का बोझ ढोकर उस स्थान तक लाये. और तीन चार छप्पर डाले. फिर भी लड़को की तादाद इतनी बढ़ गयी क़ि उन्हें समायोजित करना मुश्किल हो गया. लड़को की संख्या हजारो से ऊपर पहुँच गयी. इसी बीच पड़ोसी गाँव के किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति अपनी परती पडी जमीन को विद्यालय को इस शर्त पर दान देना स्वीकार किये क़ि लड़को से फीस भी लेनी पड़ेगी. ताकि कुर्सी बेंच आदि की व्यवस्था हो सके. तथा उनका एक लड़का उस विद्यालय में नौकरी करने लगे. गुरूजी मान गए. किन्तु उस व्यक्ति ने लालच में आकर उस विद्यालय को वहां के एक बहुत बड़े नेता के संज्ञान में डाल दिया. बहुत विवरण न देकर इतना ही लिखना पर्याप्त है क़ि उस विद्यालय को अब कमाई का एक प्रशस्त ज़रिया बना दिया गया. और क्षुब्ध होकर गुरूजी ने उस विद्यालय से नाता तोड़ लिया. अब उस विद्यालय की हालत बहुत नाज़ुक है. आज उस विद्यालय में सौ लडके के आस पास है. लेकिन केवल वे ही लडके आते है जिन्हें कही मज़दूरी का काम नहीं मिलता है. यदि कही मज़दूरी का काम मिल गया तो वे भी नहीं आयेगें.
इन्ही सब बातो को ध्यान में रखते हुए शायद गुरूजी ने यह कहा था क़ि उनके हाथो में यश नहीं है.
खैर गुरूजी ने यह सब समस्याएं नहीं बतायी थी. मैंने सोचा था क़ि संभवतः केवल धन की कमी के कारण मंदिर बनवाने में बाधा आ रही है. लेकिन यहाँ पर कुछ और ही समस्या नज़र आयी.
वैसे गुरूजी ने अपनी ही ज़मीन में एक और मंदिर बनवाया है. लेकिन वहां पर केवल अपनी ज़मीन ही दी है. परन्तु वह मंदिर केवल मंदिर है. उसमें कोई विशेषता नहीं है. यहाँ पर आज कल गाँव के बेकार निठल्ले एवं बेशर्म किस्म के लोग तास आदि खेलते रहते है.
किन्तु इस मंदिर में अनेक खाशियतो के साथ कुछ प्राकृतिक महत्ता भी जुडी है. और जिस तरह से गुरूजी की योजना है, वह मंदिर एक अलग प्रकार का ज्योतिषीय एवं आधुनिक विज्ञान के सूक्ष्म किन्तु ठोस आधार पर आधारित मंदिर है. मंदिर की जो रूप रेखा है वह उसी गाँव के राज मिस्त्री को पता है. मै वहां से कुछ चित्र भी मोबाईल में लाया हूँ. कोशिस करूंगा क़ि इस ब्लॉग के साथ ही डाउन लोड कर दूं.
और अंत में मै आदरणीय एवं श्रद्धेय गुरुवर पंडित आर. के. राय जी से करबद्ध प्रार्थना करते हुए यह क्षमा याचना करना चाहूंगा क़ि बिना किसी अधिकार के उनकी कुछ व्यक्तिगत जिन्दगी के विवरण जो एक नितांत प्रतिबंधित कृत्य है, यहाँ ब्लॉग के रूप में प्रस्तुत किया हूँ.
“क्षमा बडन को चाहिए, छोटन को उतपात.”
पाठक

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