DIL KI KALAM SE
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कौन अपने है कौन पराये
बात हमे ये
भ्रमित और झकजोर
क्यूँ जाए
विरह के जब
मेघ मंडराए
एकल बैठ के
हम अश्रु बहाए
वेदना ने
बेहाल किया जब
असहाए तब
स्वयं को पाए
जग की रीत
है बड़ी पुरानी
हर पीड़ित की
यही कहानी
व्यथा दे जब
हमें सताये
समक्ष स्वयं के
कोई न पाए
जीवन देता
सबक सिखायें
सत्य का तब
बोध करायें
अपना समय जब
फिर फिर जाएँ
धन लक्ष्मी
की कृपा पायें
अपने तो अपने
गैर भी तब
अपनत्व का
फिर बोध करायें
प्रेम का ऐसे
ढोंग रचाए
दायित्व की फिर
दे दुहाई
कर्तव्य हमको
दिए गिनाये
स्मरण अपने
उपकार करायें
वक़्त-बे-वक़्त
जब अहसान जतायें
ये भी अपना
वो भी अपना
प्रेम मग्न हो
तो जग भी अपना
कथन करनी में
क्यूँ अंतर करना
मानव धर्म का
पालन करना
ऐसे शुद्ध हम
अपना हृदय बनायें
अपने अंतर्मन की
ध्वनि सुन
स्वयं को हम
परिपूर्ण करायें
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