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गीता के १८ अध्याय

DIL KI KALAM SE
DIL KI KALAM SE
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चारो ओर, खड़े है सैनिक
युद्ध में जीत दिलाने को
शोक करुणा से, अभिभूत है अर्जुन
देख, रक्त सम्बन्धी रिश्तेदारों को
खड़े हुए है अब कृष्णा
उसे शोक से मुक्त कराने को
देहान्तरं की प्रक्रिया कैसी
संक्षेप में ये समझाने को
अजर अमर है जीवात्मा
स्मरण रखना इस ज्ञान को
खड़ा हो जा धनुष उठा
अपना धर्म निभाने को
मरे हुओ को मार डालना
जग में नाम कराने को
अपने पराये से मुहँ मोड़ लो
पाप पुण्य की चिंता छोड़
कर्म अकर्म को अपर्ण कर दो
मुझ अन्तर्यामी परमेश्वर को
निष्काम सेवा में, ध्यान लगा दो
स्वरुप सिद्दि पाने को
भौतिक जगत में आता प्राणी
कर्म बंधन से मुक्त हो जाने को
गुरु शरण में अभी चला जा
दिव्य ज्ञान की जोत जगाने को
कर्म योग का मार्ग अपना लो
इस जग से शीघ्र तर जाने को
जीव होता जग में हरदम
जन्म मरण से मुक्ति पाने को
कोई भी लो तुम मार्ग अपना
मुझ प्रेमश्वर को पाने को
कर्मफलो का परित्याग करो तुम
उत्तरदायित्व अपने निभाने को
भागने से ना मुक्ति होगी
याद रखना इस तथ्य को
पूजा जप ताप यघ भी करना
भक्ति रस में, खो जाने को
इन्दिर्यों को अपनी, नियंत्रित करना
परमात्मा में लीन, हो जाने को
सब कुछ अपना अपर्ण कर दो
मुझ अन्तर्यामी परमेश्वर को
अर्जुन से फिर बोले भगवान
परमसत्य को अब तू जान
भक्ति का मार्ग बड़ा महान
सांख्य योग करो, चाहे ध्यान
पर भक्ति से मिलते भगवान
जीवनभर करना, कोई भी काम
क्षणभर भी ना, भूलो भगवान
आजीवन स्मरण करने से
अंतत मिले परमधाम
इर्षा दुवेष को दे तू त्याग
गूढ़ ज्ञान दू तू तुझको आज
जिसमे भक्ति ना हो
ना मुझमे विस्वास
उसको मृत तू क्षण में जान
मुझसे उत्त्पन्न ये संसार
समस्त ब्रमांड का मैं भगवान
मैं अजन्मा मैं अनादि
कण कण मैं ही विधमान
निरंतर मुझ में चित लगा
तेरा कर दूंगा उद्धार
मैं शेष हूँ मैं महेश हूँ
मैं ही ब्रमांड का हूँ प्रकाश
शस्त्रधारियों मैं ही राम
हर जीव की मैं हूँ स्वास
विराट रूप जो मेरा देखो
विधमान इसमें ब्रमांड देखो
पातळ धरती और ये आकाश
मिलेंगा उपस्थित ये संसार
आदि ना अंत मिलेगा तुमको
क्योंकि मैं ही अनंत भगवान
जीवन अपना साकार कर
चित मुझ में एकार्ग कर
अविचलित भक्ति का अभ्यास कर
शंकाओ का परित्याग कर
मैं ही सबका मूल स्रोत
मुझमे नहीं है कोई भी दोष
दिव्य ज्ञान का खोलू द्वार
एकार्ग हो तू सुन ले आज
प्रक्रति के ये तीन गुण
सत रज और तमोगुण
इन गुणों से परे हो
भक्ति करो परमेश्वर की तुम
संसार है पीपल का वृक्ष
जड़ उपर और नीचे सर
कही ना आदि कही ना अंत
यही सत्य और शास्वत तत्व
जीव होते है क्षर अक्षर
जिनका पालनकर्ता है ईश्वर
यघ परायणता और वेदा अध्यन
दान अहिंसा और आत्मस्यंम
कहलाते ये दैविक गुण
दंभ दर्प और अभिमान
क्रोध कठोरता और अज्ञान
अपनाना ना ये आसुरी गुण
सत का तू पालन कर
सब कुछ मुजको अर्पण कर
ब्रमांड का केंद्र मैं
मैं ही सबका हूँ ईश्वर

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