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फिल्मी प्रेम……..

परिवर्तन की ओर.......
परिवर्तन की ओर.......
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फिल्में समाज से प्रभावित होकर बन रही है या समाज फिल्मों से प्रभावित होकर अपने मूल्यों को बदल रहा है…. ये विचारणीय विषय है….. प्रेम की मूल भावना फिल्मों ने खत्म कर दी है….. फिल्मों मे प्रेम का एक अलग स्वरूप है……… फिल्मों ने प्रेम का व्यवसायीकरण कर दिया है……… प्रेम को निश्छलता से दूर कर चतुराई ओर कपट का ही एक रूप बना दिया है……
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यहाँ नायक नायिका की सुंदरता पर मुग्ध हो जाता है….. और उसको पाने के लिए तरह तरह के उपाय करता है… अक्सर मूल प्रेम जो की सौन्दर्य की आकांशा से परे हो उसका फिल्मों मे प्रयोग नहीं होता….. फिल्मों मे सारा ध्यान नायिका को आकर्षक बनाए जाने की और है…. और वहीं से ये बात समाज पर प्रभाव डाल रही है की प्रेम आकर्षण का ही एक रूप है….
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हम लोग इस ओर कभी ध्यान ही नहीं देते की जिन फिल्मों को देख कर हम प्रेम की परिभाषा सीखते हैं… जिन नायक नायिकाओं से हम प्रेम का ज्ञान लेते हैं उनके निजी जिंदगी मे प्रेम का क्या महत्व है इस ओर विचार ही नहीं करते…. शाहिद कपूर, सैफ अली खान, सलमान खान, विवेक ओबेरॉय, अभिषेक बच्चन, रणवीर कपूर जैसे नायक ओर करीना कपूर, ऐश्वर्या राय, दीपिका पादुकोण, सुष्मिता सेन और न जाने कितने नायक नायिकाएँ….. प्रेम के मामले मे फिल्मों तक ही सीमित रह गए…निजी जीवन मे इनका प्रेम हमेशा चर्चाओं तक ही सीमित रहा….
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क्योकि इन फिल्मों मे भी प्रेम का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट नहीं होता है……..
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प्रेम के संदर्भ मे एक फिल्म जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया……… जिसमे दिखाया गया प्रेम मेरी समझ के प्रेम की परिभाषा से मिलता है वो फिल्म थी हम दिल दे चुके सनम…….
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नायक नायिका प्रेम करते है…… पर दवाब के कारण शादी नहीं कर पाते …. नायिका की शादी अन्यत्र हो जाती है……. और नायिका की अपने प्रति उदासीनता को देख कर उसका पति उसको उसके प्रेमी से मिलने का निश्चय करता है…. ये बात पूरी तरह से फिल्मी है… और निजी जीवन मे ऐसा होना संभव भी नहीं है…. पर प्रेम का वास्तविक स्वरूप यहीं से सामने प्रकट होता है….
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जब नायक नायिका को मिलाने के प्रयासों के दौरान ही नायिका के प्रति उसके पति का असीम प्रेम पत्नी (नायिका) के हृदय को प्रेम से भरने लगता है…… और अंत मे जब नायक और नायिका को मिलाने के प्रयास मे पति सफल हो जाता है……….तो नायिका अपने पति को छोडने से इंकार कर नायक को ठुकरा देती है….
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वो साबित कर देती है की प्रेम की सामर्थ्य पत्थर को भी पिघला सकती है…… उसकी (नायिका की) घृणा (या अपने पति की प्रति उदासीनता) से प्रारम्भ हुआ ये संबंध एक अपार प्रेम के साथ समाप्त होता है………… ये दिखा देता है की जब आप किसी की ओर प्रेम की बूंदें छलकाते हैं…. तो वो कहीं न कहीं उसके हृदय मे संचित होती रहती हैं………….और फिर एक दिन वो घड़ा भर जाता है…………..और वो प्रेम छलक़ने लगता है……….और आपको मिलता है………
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प्रेम की शक्ति की कूई सीमा नहीं है………… ये मीरा का प्रेम ही था जिसने कृष्ण को उसका बना दिया………. ये चतैन्य का प्रेम था की जिसने उनका जीवन कृष्णमय कर दिया…….. सूरदास का कृष्ण के प्रति प्रेम उनको वो आँख दे देता है……….. जो उस निराकार के दर्शन करवा दे…………
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यही प्रेम का वास्तविक स्वरूप है………. की यदि आप किसी को असीम प्रेम करें तो ना चाहते हुए भी उसे आपको प्रेम का प्रतिफल प्रेम के रूप मे ही देना पड़ेगा….प्रेम प्रतिफल की आशा से रहित भावना है….. प्रेम बिना किसी स्वार्थ के केवल देना ही जानता है………
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