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मित्रता दिवस पर सुबह से कई मित्रों के संदेश मोबाइल पर आए… पर हर बार की तरह मैंने किसी भी मित्र को कोई संदेश नहीं भेजा…
मेरा निजी मानना है की क्या वास्तव में हमारे संबंध दिनों पर निर्भर हैं। क्या आज के दिन मित्रों को संदेश भेज कर हमारी मित्रता पूरी हो जाती है।
बड़ा विरोधाभास है की साल भर हम मित्रों को पूछते तक नहीं की वो कैसे हैं किस हाल में हैं और एक दिन औपचारिकतावश संदेश भेज कर कहते हैं की मित्रता दिवस की बधाई……..
मित्रता किसी औपचारिकता की मोहताज नहीं है… जहां सारी औपचारिकताए समाप्त हो जाती हैं वहाँ से मित्रता शुरू होती है….
ये पाश्चात्य संस्कृति है जहां सम्बन्धों को प्रदर्शन की आवश्यकता है…. हमारे देश में संबंध आत्मिक हैं। यहाँ कृष्ण सुदामा को अखिल ब्रह्मांड का वैभव मित्रतावश सौपने को तैयार हो जाते हैं…
यहाँ राम से मित्रता निभाने को राजा गोह अयोध्या की सेना से लड़ने को तैयार हो जाते हैं, विभीषण राम के मित्र भाव से प्रभावित होकर अपने भ्राता के विरुध युद्ध करते हैं। सुग्रीव लंका की सेना से लड़ जाते हैं, और दशरथ के मित्र जटायु रावण के हाथों मारे जाते हैं… ये दुर्योधन की मित्रता ही थी जिसने कर्ण को पांडवों के विरुद्ध लड़ने के लिए बल दिया…
ऐसे कई और भी उदाहरण हमारे ग्रंथ देते हैं जहां मित्रता आत्मोसर्ग तक पहुँच जाती है।
मेरे अनुसार हम मित्र रोज मिले या न मिले ये जरूरी नहीं….. पर जब हमें एक दूसरे की जरूरत हो तब हम साथ हों… जब सब साथ छोड़ दें तो जो साथ खड़ा रह जाए वो ही मित्र है…
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