जब बहुत छोटे छोटे से थे, दुनियादारी की समझ नहीं थी, तब से बिजली विभाग से परिचय था। बल्कि यूं कहना बेहतर होगा की बिजली से दोस्ती सी थी। जैसे ही रात होती और पढ़ने की बारी आती, तभी बिजली चली जाती, और हम सारे बच्चे “लाइट गई हो..” चिल्लाते हुए अपने अपने घरों से बाहर की ओर दौड़ पड़ते…… तब बिजली कटौती से बचाव का एक मात्र विकल्प जनरेटर ही था। इनवर्टर तब नहीं हुआ करते थे। तो बिजली विभाग हमें खेल के घर आने के बाद फिर एक बार खेलने का मौका देता। जैसे दो दोस्तों में कभी कभी झगड़ा भी होता है ठीक उसी तरह हमारा भी कई बार इस बिजली से झगड़ा हो जाता जब ये बिजली “रामायण”, “महाभारत” या हमारे किसी और मनपसंद धारावाहिक के समय पर चली जाती… हम कोसने लगते की शाम को ही चली जाती, जब पढ़ने का समय होता है… अभी तो हम अपने पसंद के कार्यक्रम देख रहे थे,,, फिर बड़े हुए तो बिजली से दोस्ती खत्म सी हो गई, क्योंकि अब पढ़ाई से बचना जैसा कुछ नहीं था, और न ही अब उसकी कमी या जरूरत ही महसूस होती। क्योंकि कभी जा कर अपनी कमी महसूस करने वाली बिजली अब इंवर्टर में कैद हो चुकी थी। अब बिजली का जाना कई बार झुँझला सा देता… क्योंकि इनवर्टर की भी अपनी एक सीमा होती है। पर एक लंबे समय बाद आज “दीपावली” के पर्व पर बिजली के जाते ही फिर बिजली से फिर से दोस्ती करने का मन कर गया…… दीपावली पर्व के नाम पर होने वाले प्रदर्शनो ने इस पर्व को मूल्यहीन बना दिया है.. पर्व लोगों को निकट लाने का काम करते हैं… पर यहाँ ये पर्व आर्थिक अंतर प्रकट करने का माध्यम बन गए हैं… एक गरीब का बच्चा अपने पिता से पूछता है की लोगों के घरों में इतनी सारी लाइट लगी है, तो हमारे घर में ये 4 दिये ही क्यों जले हैं, ये बाकी लोग कई सारे पटाखे छोड़ रहे हैं तो हम क्यों नहीं….. और फिर अचानक बिजली चली जाती है…. और वो गरीब बाप अपने बेटे को समझाता है की देख बेटा जो घर अब तक चमक रहे थे अब अंधेरा उन्हें निगल चुका है… और अब हमारा घर जो इन नन्हें नन्हें दीपकों के सहारे था वो अब चमक रहा है…. ये बनावटी चमक कुछ समय तक तो ठीक है पर अंतत: काम सच्ची चमक सच्ची सुंदरता ही आती है…. अभी तक निरुत्तर दिख रहे बाप को एक मजबूत आधार देने वाली बिजली वास्तव में कम से कम दिवाली के दिन के लिए तो आभार की हकदार है….. शुक्रिया बिजली.
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