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दिवाली का त्यौहार अपने आप में एक विशेष महत्व रखता है……… न केवल इसलिए की 14 साल के लम्बे वनवास के बाद इस दिन ही प्रभु श्री राम घर वापस लौटे थे……….. अपितु ये दिन अपने मनाये जाने के तौर तरीके के कारणों से भी विशेष है……………
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दीपावली मनाये जाने की शुरुवात दशहरे से ही शुरू हो जाती है……… घरों में होता रंग रोगन……. साफ़ सफाई….. ये संकेत देने लगती है की दिवाली बस अब आ ही गयी……… दिवाली घर के पुराने कूड़े कचरे को बाहर निकलने तक ही सीमित नहीं है…….. अपितु ये मन के मैल को दूर करने का संकेत है………….
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दिवाली ने प्रारंभ से अब तक न जाने कितने रंग देखे……. कभी वो समय भी रहा होगा…… जब बिजली नहीं हुआ करती थी……… तब चारों और दीयों के प्रकाश से घर सजाये जाते होंगें……… किन्तु अब बिजली की मालाओं ने प्रकाश बिखरने का जिम्मा ले लिया है……………
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हालाँकि दिन विशेष पर बिजली विभाग हमको उन पुराने ज़माने की याद दिला ही देता है… पर मिटटी के दिए और मोमबत्ती बनाने वाले जिनके लिए दिवाली ही सबसे बड़ा अवसर होता था……….. वो अब जीवन के लिए संघर्ष करते नजर आ रहे हैं………. ये कुटीर उद्योग चाइनीज़ मालाओं और मोमबत्तियों के आगे जो मोमबत्तियां बिजली से चलती हैं……… घुटने टेक चुके हैं………….. भले हम कितना भला बुरा कहे इन बिजली विभाग के कर्मचारियों को इन कामगार लोगों ने शुक्रिया कहना चाहिए इन कर्मचारियों का जो न चाहते हुए भी लोगों को मोमबत्तियां और दिए इस विश्वाश के साथ खरीदने को मजबूर कर देते हैं की बिजली तो जानी ही है……. तब कहीं अँधेरा न हो जाये……….
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पुराने समय से ही हमारे पहाड़ के लोगों में शुभ कार्यों में ऐपण देने का रिवाज रहा है………. पहले यहाँ गेरू (गेरुवे रंग की मिटटी जैसा कुछ) का घोल बना कर उस को आँगन में लगाया जाता था…… फिर उस गेरू पर पहले दिन से भिगाए चावलों को पीस कर ‘बिस्वार’ (सफ़ेद घोल) बनाया जाता था…….. फिर महिलाएं उस घोल में हाथ को डुबो कर तरह तरह के डिजाइन वाले ऐपण बनाती थी………….
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गेरू से थोड़ी थोड़ी दुरी पर लाल गोल घेरे बनाकर घर के प्रवेश स्थान (गेट) से घर के मंदिर और अन्य कमरों तक उस लाल गोले पर सफ़ेद घोल से पैरों के निशान बनाये जाते थे………. फिर दिवाली के दिन के लिए गन्ने से लक्ष्मी बनायीं जाती और उस लक्ष्मी माता की पूजा की जाती………उन दिनों हमारे पहाड़ों में दिवाली पर पटाखे जलने का कोई रिवाज नहीं था…….
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किन्तु आज दिवाली पूरी तरह से व्यासायिक हो गयी है………… दीयों की जगह चाइनीज़ मालाओं ने ले ली है………….. गेरू बाज़ार में उपलब्ध नहीं रहा है……….. यहाँ तक की गेरू मांगने वाले को यूँ देखा जाता है मानो वो कुछ गैर क़ानूनी वस्तु की मांग कर रहा हो….. ऐपण गेरू और बिस्वार से उठकर लाल पेंट पर सफ़ेद पेंट पर आये और अब ऐपण के स्टीकर उपलब्ध हैं…………
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पर इस सब के बीच वो भावना कहीं ख़त्म सी हो गयी है………. लोगों का ध्यान दिवाली मनाने के स्थान पर पटाखों के शोर शराबे पर आ कर रुक गया है………… पहले लोग एक दुसरे के घर बनी ऐपण और गन्ने की लक्ष्मी के दर्शन करने जाते थे………होड़ सी मची रहती थी सबसे सुन्दर ऐपण और लक्ष्मी बनाने की .. पर अब वो होड़ मची है सबसे अलग और सबसे अधिक आतिशबाजियां जलाने की…………..
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जितना प्रदुषण सारे वर्ष भर होता है उतना शायद केवल दिवाली के दिन ही हो जाता है……….. आखिर क्या देना चाहते है हम अपने परिवार को………… संस्कारों से भरी दिवाली या धुवें से भरे फेफड़े……… ये दिए और मोमबत्ती जलाने में लगने वाला समय या ये ऐपण और लक्ष्मी बनाने में लगने वाला समय बचाकर हम कोई सार्थक काम कर रहे हैं…….. यदि या तो बेशक इनकी कोई आवश्यकता नहीं है…………. पर अगर यूँ छोटी छोटी खुशियों को अनदेखा कर के हम समय बचा रहे हैं और उसको पर निंदा या बस यूँ ही किसी काम में खर्च कर रहें हैं ………… तो हमें कोई हक़ नहीं ये कहने का की जीवन अब पहले जैसा शांत और खुशहाल नहीं रह गया……..
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सभी पाठकों को इस दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं……………
आपकी दीपावली मंगलमय हो……..
और माता लक्ष्मी आपके घर खुशियों के साथ आयें………….
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