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दो भाई थे, दोनों में एक दूसरे के प्रति दुर्भावना घर कर चुकी थी। उनकी माँ बड़े भाई के साथ रहती थी, फिर बड़े भाई की थोड़ी लापरवाही के कारण माँ की हालत धीरे धीरे बिगड़ने लगी।
फिर एक दिन छोटे भाई ने बड़े भाई से कहा, “क्योंकि तू माँ की देखभाल ठीक से नहीं कर पा रहा है, इसलिए मैं माँ को अपने पास ले जाना चाहता हूँ, मैं माँ की अच्छी तरह से देखरेख करूंगा और माँ का अच्छा इलाज़ करूंगा…”
बड़े भाई के विरोध के बाद भी छोटा भाई माँ को अपने साथ ले गया….
अब बड़ा भाई रात दिन यही सोचता रहा कि काश माँ कि हालत ठीक होने कि जगह और बिगड़ जाए, ताकि लोगों को ये लगे कि बड़ा बेटा ही ठीक था….
इस मानसिकता के बेटे को क्या बेटा कहा जाना चाहिए…. क्या इस तरह के बेटे को माफ भी किया जा सकता है…..
शायद 99% लोग इसका उत्तर नहीं में ही दें..
एक सच्चा बेटा वो छोटा बेटा है जो कहता है कि माँ की बीमारी का इलाज फ़ैमिली डॉक्टर के पास नहीं है तो दूसरे के पास जाने में क्या बुराई है.. वो कहता है कि एक बार इस झोलछाप को ही दिखा लो, क्योंकि लोग कहते हैं की कई बार इसकी दवा भी लग जाती है।
वो कहता है कि मंदिर में प्रसाद, मस्जिद में चादर चढ़ा कर भी देख लेते हैं,, क्या पता कुछ असर हो जाए….
यहाँ बेशक हम कहें कि बड़ा बेटा गलत है, और हम होते तो छोटे बेटे जैसे ही होते… पर हिंदुस्तान में बड़े बेटे ही बहुतायत में हैं, एक वक्तव्य आज मैंने सुना जिसके चलते ये इतनी लंबी चौड़ी कहानी बनानी पड़ रही है….
एक सज्जन का कथन था, कि ये मोदी सरकार 5 साल तक कुछ कर नहीं पाती तब आता मज़ा तब पता चलता लोगों को की सरकार कैसी होती है…..
इस तरह के सज्जन समाज में कई है और ये वो हैं जो खुद को सच्चा देशभक्त कहलाने के कई उपाय करते रहे हैं….
क्या ये एक देशभक्त की निशानी है…. जिस व्यक्ति के लिए एक दल के प्रति प्रेम देश के प्रति प्रेम से अधिक हो जाए क्या उसे देशभक्त कहा जा सकता है….
क्यूँ नहीं हम ये चाहते हैं की सरकार कोई भी बने, कम से कम देश का भला तो करे… क्यों हम उस छोटे बेटे की तरह सोच पते हैं की भले मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा में माथा टेक कर ही हो पर मेरी माँ ठीक हो जाए…….
आखिर कब हम राष्ट्रहित सर्वोपरि का उद्घोष कर पाएंगे…. आखिर कब हिंदुस्तान के लोग अपने दिल मे दल की जगह देश को बसा पाएंगे……
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