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धार्मिक व्योम के चंद्रमा हैं गोस्वामी तुलसीदास

SHABDARCHAN
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(जयंती 13 अगस्त पर विशेष )

भारतीय संस्कृति की अद्भुत परम्पराओं को जीवंत बनाये रखने के लिए यहाँ की धरा पर अनेकानेक विभूतियों का पदार्पण होता रहा। अपने सामाजिक ,आर्थिक और अन्य अनेक कारणों को दरकिनार करते हुए इन विभूतियों ने अपने सम्पूर्ण जीवन को महति उद्देश्यों के पावन पथ पर होम कर दिया।भारतीय धार्मिक सभ्यता के व्योम पर महाकवि गोस्वामी तुलसी दास एक ऐसा ही नाम है ,जो कईं सदियाँ बीत जाने के उपरांत भी अपनी लेखनी के तेज और ओज से चन्द्रमा की भांति दैदीप्यमान हैं।ना सिर्फ भारत अपितु भारत के बाहर भी जहाँ -जहाँ भारतीयता ने अपने पैर पसारे वहाँ -वहाँ तुलसीदास भी स्वतः ही जा विराजे ! आपको जानकार आश्चर्य होगा कि सबसे अधिक दोहराए जाने वाले नाम श्री राम के नाम के बाद उन्हीं के अनन्य भक्त तुलसीदास का नाम मंदिरों में सर्वाधिक उच्चारित किया जाता है।

उत्तरप्रदेश के जनपद चित्रकूट के गाँव राजापुर में सरयू पारीण ब्राह्मण आत्माराम दुबे और ईश्वर भक्त महिला हुलसी रहा करते थे। उनके आँगन में संवत 1554 के श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को अभुक्त मूल नक्षत्र में एक दीपक प्रज्ज्वलित हुआ।कथायें बताती हैं कि बच्चे का जन्म एक वर्ष के प्रसव के बाद हुआ था।बच्चे के मुँह में दांत थे, जन्मने बच्चे प्रायः रोते हैं परन्तु इस बच्चे ने जो प्रथम शब्द उच्चारित किया वह था -राम !फलस्वरूप घर में इस बच्चे का नाम पड़ा -‘रामबोला ‘ बच्चे के जन्म के अगले दिन ही माता हुलसी स्वर्ग सिधार गईं।पिता ने अज्ञात भय से ग्रस्त होकर बच्चे को एक सेविका चुनिया को सौंप दिया और स्वयं संसार से विरक्त हो गए।रामबोला साढ़े पाँच साल का था तब चुनिया भी चल बसी। गाँव -गाँव ,गली-गली अनाथों की तरह भटकते हुए रामबोला का बचपन बीता।जिससे परमात्मा अपना काम लेना चाहता है उसके शेष मार्ग बंद कर देता है। मंदिरों में जो प्रसाद चढ़ता उससे रामबोला अपना पेट भरता, पेट भर जाता तो जीभर कर राम के भजन गाता।

उस समय के अत्यंत प्रतिष्ठित स्वामी अनंतानंद महाराज के प्रिय शिष्य गुरु नरहर्यानन्द (बाबा नरहरि ) से बालक रामबोला की भेंट हुई।बालक की सहज भक्ति भावना ने गुरु नरहरि को बहुत प्रभावित किया। उन्होंने सोचा यदि बच्चे को समुचित शिक्षा और मार्गदर्शन तो यह कमाल कर सकता है। बाबा ने रामबोला को अपने साथ लिया और अयोध्या आ गए। वहां बाबा नरहरि ने संवत 1561 माघ शुक्ल पंचमी के दिन रामबोला का यज्ञोपवीत संस्कार कराया। संस्कार के समय बिना किसी पूर्व शिक्षा के बालक ने गायत्री मंत्र का स्पष्ट उच्चारण करके सबको चकित कर दिया। वैष्णवों के पञ्च संस्कारों की रस्म पूर्ण करते हुए बाबा नरहरि ने बालक रामबोला को एक नया नाम दिया -तुलसीदास !उन्होंने ही तुलसीदास को राममंत्र की दीक्षा दी और उसके विधिवत विद्याध्ययन की व्यवस्था भी की।
तुलसीराम का मस्तिष्क अत्यंत तीव्र था तथा स्मरण शक्ति भी गज़ब की थी। वह गुरु के मुख से एक बार जो भी मंत्र सुन लेता, वह उसे तत्काल कंठस्थ हो जाता। ज्येष्ठ शुक्ल त्रियोदशी गुरुवार संवत 1583 को राजापुर से थोड़ी ही दूर स्थित एक गाँव में रहने वाली अत्यंत सुन्दर भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली से उनका 29 वर्ष की आयु में विवाह हुआ। उस समय विवाह के साथ साथ गौना की रीति हुआ करती थी चूँकि तब तुलसीराम का गौना नहीं हुआ था अतः वह शेष शिक्षा पूरी करने काशी चले गए। वहां आचार्य शेष सनातन जी के पास रहकर तुलसीराम ‘वेद -वेदांग ‘ का अध्ययन करने लगे। वहां रहते हुए उन्हें एक दिन अपनी पत्नी की बहुत याद आई व्याकुल तुलसीराम गुरु से आज्ञा लेकर अपनी पत्नी से मिलने चल दिए। पत्नी रत्नावली चूँकि मायके में ही थी अतः तुलसी राम ने भयंकर उफनती नदी पार की और सीधे अपनी पत्नी के कमरे में जा पहुँचे। रत्नावली इतनी रात गए अपने पति को भीगे वस्त्रो में देखकर आश्चर्यचकित रह गयी। उसने लोकलाज की दुहाई देकर दीवाने से हुए तुलसीराम को वापस लौटने के लिए कहा। जबकि तुलसीराम उससे उसी वक़्त अपने साथ घर चलने का आग्रह करने लगे। तुलसीराम की इस अप्रत्याशित जिद से क्षुब्ध होकर रत्नावली ने एक स्वरचित दोहा कहा। इस दोहे में छिपी शिक्षा ने ही तुलसीराम को ‘तुलसीदास’ बना दिया। यह दोहा था –
‘अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !
नेकु जो होती राम से ,तो काहे भव-भीत !’
‘हड्डी चमड़े के इस शरीर से तुम्हारा जितना लगाव है ,यदि उसका थोडा सा अंश भी भगवान राम से होता तो तुम भवसागर से पार उतर गए होते !’ बस इस वचन ने तुलसीराम के हृदय पर ऐसा आघात किया कि वे पत्नी को वहीँ छोड़ अपने गाँव चले आये। वहां उन्होंने राम कथाएं सुनानी प्रारंभ की।
संवत 1628 में तुलसीदास काशी आ गए। वहां के प्रहलाद घाट पर प्रवास के दौरान उनमें कवित्व शक्ति का प्रस्फुटन हुआ। उन्होंने अपने भक्ति पदों की रचनाएँ की। अतीत के अनेक प्रसंगों में तुलसी दास को समय-समय पर स्वप्न में तथा साक्षात विभिन्न दिव्य अनुभूतियों के वर्णन मिलते हैं। जिनमें उनके आराध्य राम। भगवान शिव और हनुमान उन्हें अनेकानेक प्रेरक दृष्टान्तों की अनुभूति कराते हैं।
संवत 1631 में रामनवमी के दिन दैवयोग सा वैसा ही दिन आया, जैसा रामजन्म के समय था। तुलसीदास ने प्रभु प्रेरणा से ‘श्री राम चरित मानस ‘ की रचना प्रारंभ की। दो साल सात महीने छब्बीस दिन में संवत 1633 शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन इस अद्भुत ग्रन्थ की रचना पूर्ण हुई। श्री राम चरित मानस की रचना ने हिन्दू समाज की व्यवस्था में अतिशय सकारात्मक परिवर्तन प्रदान किये। रामलीलाओं के मंचन में इस ग्रन्थ की चौपाइयों ने जैसे क्रांति ही कर दी। घर-घर, गाँव-गाँव रामलीलाओं के मंचन ने तुलसीदास को अमर कर दिया। उन्हें वाल्मीकि के अवतार की संज्ञा भी दी गई। प्रतिभासंपन्न व्यक्ति की एक ही दुविधा होती है कि इर्ष्या और द्वेष उसके साथ-साथ छाया की भाँति चलते हैं। उनकी लोकप्रियता और रचनाशीलता से जलकर कुछ लोगों ने रामचरित मानस को नष्ट करने की कोशिश भी की। तुलसीदास ने अपने एक मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में से एक ) के यहाँ पुस्तक की मूल प्रति रखवा दी। रामचरित मानस की रचना के समय तुलसीदास की उम्र 79 वर्ष थी परन्तु उनकी हस्तलिपि देखने लायक है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने पन्नों पर मोती उकेर दिए हों। संभवतः तुलसीदास उस युग में कैलोग्राफी की कला जानते हों। उनके जन्म स्थान राजापुर के एक मंदिर में श्री रामचरित मानस के अयोध्या कांड की एक प्रति सुरक्षित रखी हुई है।

उसी प्रति के साथ कवि मदनलाल वर्मा ‘क्रान्त’ की हस्तलिपि में तुलसी के व्यक्तित्व व कृतित्व को रेखांकित करते हुए दो छन्द भी हैं, जिन्हें हिन्दी अकादमी दिल्ली की पत्रिका ‘इन्द्रप्रस्थ भारती ‘ ने सर्वप्रथम प्रकाशित किया था। इनमें पहला छन्द सिंहावलोकन है जिसकी विशेषता यह है कि प्रत्येक चरण जिस शब्द से समाप्त होता है, उससे आगे का उसी से प्रारन्भ होता है। प्रथम व अन्तिम शब्द भी एक ही रहता है। ‘काव्यशास्त्र’ में इसे अद्भुत छन्द कहा जाता है ।

‘तुलसी ने मानस लिखा था जब जाति-पाँति-सम्प्रदाय-ताप से धरम-धरा झुलसी।
झुलसी धरा के तृण-संकुल पे मानस की पावसी-फुहार से हरीतिमा-सी हुलसी।
हुलसी हिये में हरि-नाम की कथा अनन्त सन्त के समागम से फूली-फली कुल-सी।
कुल-सी लसी जो प्रीति राम के चरित्र में तो राम-रस जग को चखाय गये तुलसी।

आत्मा थी राम की पिता में सो प्रताप-पुन्ज आप रूप गर्भ में समाय गये तुलसी।
जन्मते ही राम-नाम मुख से उचारि निज नाम रामबोला रखवाय गये तुलसी।
रत्नावली-सी अर्द्धांगिनी सों सीख पाय राम सों प्रगाढ प्रीति पाय गये तुलसी।
मानस में राम के चरित्र की कथा सुनाय राम-रस जग को चखाय गये तुलसी।

संवत् 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास ने अपने शरीर का परित्याग कर दिया । उनकी जिव्हा पर अंतिम शब्द थे -‘जय श्री राम !’ अपने 126 वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास अनेक कालजयी ग्रन्थों की रचना की जिनमें – रामललानहछू, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, जानकी-मंगल, रामचरितमानस, सतसई, पार्वती-मंगल, गीतावली, विनय-पत्रिका, कृष्ण-गीतावली, बरवै रामायण, दोहावली और कवितावली। इनमें से रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली जैसी कृतियों के विषय में किसी कवि की यह आर्षवाणी सटीक प्रतीत होती है – पश्य देवस्य काव्यं, न मृणोति न जीर्यति। अर्थात देवपुरुषों का काव्य देखिये,जो न मरता और न पुराना होता है !
लगभग चार सौ वर्ष पूर्व तुलसीदास जी ने अपनी कृतियों की रचना की थी। आधुनिक प्रकाशन-सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास का काव्य जन-जन तक पहुँच चुका था। यह उनके कवि रूप में लोकप्रिय होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। ‘श्री राम चरित मानस ‘ जैसे वृहद् ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके सामान्य पढ़े लिखे लोग भी अपनी शुचिता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्द होते रहे हैं। दुनिया भर में हजारों कथावाचकों और पुरोहितों -पुजारियों के लिए तुलसीदास आज भी आजीविका का साधन बने हुए हैं। यहाँ यह भी जान लेना ज़रूरी है कि भारत और विश्व में श्री राम से भी अधिक मंदिर हनुमान के हैं। ‘हनुमान चालीसा’ और ‘बजरंग बाण’ तुलसीदास ने ही लिखे थे, इनके माध्यम से भगवान का और उनके भक्त तुलसीदास का प्रतिदिन करोड़ों बार पारायण होता है पूरी दुनिया में इस जैसी ना ही कोई रचना है और ना ही कोई रचनाकार।

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