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सभ्यता और संस्कृति का योग

SHABDARCHAN
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‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भागभवेत् ।।’
(भावार्थ – इस सकल विश्व के सभी प्राणी सुखी हों , सभी निरोगी हों , सभी के मध्य मित्रता के भाव रहें और किसी के भी जीवन में कभी भी दुःख न हो.)
वेद का ऋषि इस मंत्र के माध्यम से जिस संकल्प को साकार होते देखना चाहता है, उसे ‘योग’ के अमूल्य योगदान ने चरितार्थ कर दिया है ।पूरी दुनिया को भारत द्वारा दी गई महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं में ‘योग’ भी एक है।योग भारतीय सभ्यता और संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है।हज़ारों वर्ष से भारत योग के क्षेत्र में अग्रणी है।तभी तो महाभारत के समय ‘गीता’ का उपदेश करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं – ‘योग कर्मसु कौशलम् ‘ अर्थात योग के माध्यम से सभी कार्यों में कुशलता आती है।’ वस्तुतः योग का शाब्दिक अभिप्रायः है- ‘जोड़’ यानि जब ऊर्जाओं का समुचित अनुपात में एक संतुलित संयोग होता है तब योग की उत्पत्ति होती है।

द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण योग को नए अर्थों में प्रकट करते हैं, तभी तो उनका एक नाम ‘योगिराज’ भी है;यानि योग के रहस्यों का सम्राट ! यहाँ योग का भावार्थ जीवन की दैनिक दिनचर्या में समस्त ऊर्जा का अपने सम्पूर्ण स्वास्थ्य के साथ संतुलन बनाये रखने से हैं। तभी तो श्री कृष्ण गीता के ही अपने एक श्लोक में पुनः स्पष्ट करते हैं – ‘युक्ताहार विहारस्य, युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य, योगो भवति दु:खहा।।
(गीता / ध्यानयोग / मंत्र-17) (योगी का आहार ,विहार उसकी समस्त शारीरिक चेष्टाएँ और सभी कर्म; यहाँ तक की सुप्त अवस्था में जब वह स्वप्न देखता है, तब भी एक सच्चे योगी का अपने ऊपर नियंत्रण बना रहता है।)

हिन्दू वांग्मय में, ‘योग’ शब्द का सर्वप्रथम ‘कठ उपनिषद’ में प्रयोग हुआ है। जहाँ ‘योग’ ज्ञानेन्द्रियों के नियंत्रण और मानसिक गतिविधियों के निवारण हेतु प्रयुक्त हुआ है। इसका एक अर्थ उच्चतम स्थिति प्रदान करने वाला मन भी माना गया है। नियंत्रण और अनुशासन व्यक्ति को उसके लक्ष्यों और उद्देश्यों के निकट ले जाते हैं ; फिर मनुष्य साधारण हो या जटिल सभी परिस्थितियों से स्वयं को पार अनुभव करता है। इसी एक सूत्र के माध्यम से श्री कृष्ण अर्जुन के संशय को दूर करके उसे कर्म के मार्ग पर अग्रसारित करते हैं। योग के महत्त्व का पता इसी बात से चल जाता है कि गीता के सभी 18 अध्यायों के नाम किसी न किसी योग पर ही आधारित हैं -जैसे सांख्य योग , कर्मयोग ,ज्ञान योग , संन्यास योग ,ध्यान योग भक्ति योग इत्यादि।
सिर्फ महाभारत ही नहीं उससे पूर्व भी भारत में योग के महत्त्व के प्रमाण मिलते हैं। वैदिक संहिताओं में अनेक स्थान पर योग का उल्लेख मिलता है।उपनिषदों के ऋषियों का जीवन योगमय होने के असंख्य उदाहरण उपलब्ध हैं। ऋषि -मुनियों के जीवन में जिस ‘तप’ और ‘तपस्या’ शब्द का बार-बार उल्लेख मिलता है वह वास्तव में योग का ही एक स्वरुप है। साधना,ध्यान,दर्शन और तप योग की मुख्य धारा से ही उदित हुए हैं। साधक साधु-सन्यासियों ने योग के महत्त्व को समझकर इसे सभी के लिए सुलभ बनाया।रामायण काल में भी योगियों और साधकों के जीवन में योग की झलक मिलती है। श्री राम और उनके चारों भाईयों को गुरु विश्वामित्र ने अपने आश्रम में जिन सूत्रों की शिक्षाएं दी थीं, उनमे योग भी एक है। स्वयम्बर के समय जब कोई भी राजकुमार राजा जनक की पुत्री सीता से विवाह की न्यूनतम अहर्ता; शिव के धनुष को उठाने की चेष्टा में सफल नहीं हो पाता ;तब विश्वामित्र ही श्री राम को ‘प्राणायाम क्रिया’ द्वारा समस्त शक्ति भुजाबल में संचारित करने का परामर्श देते हैं। समय साक्षी है श्री राम सफल होकर सीता को पत्नी रूप में चुनते हैं। यह प्राणायाम क्रिया आज भी योग के महत्त्वपूर्ण आठ सूत्रों में से एक है।

यह योग की ही विशिष्टता थी कि वह सभी धर्मों और विचारों के साथ घुलता -मिलता चला गया। रामायण ,महाभारत और वैदिक काल के अलावा बौद्ध ,जैन और सिख धर्म में भी योग को खुले मन से अपनाया गया। बौद्ध धर्म के दोनों मतों हीनयान और महायान में ध्यान की अनेक विधियां योग से ही निकली हैं। स्वयं भगवान बुद्ध ब्रह्म मुहूर्त में जो चलित ध्यान करते थे; वह भी योग की ही एक सूक्ष्म निष्पत्ति है। सिंधु घाटी की सभ्यता में उत्खननं के दौरान पुरातत्व विशेषज्ञों को अनेक ऐसी प्रस्तर मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, जिनका सम्बन्ध धार्मिक संस्कारों और ध्यान-योग की क्रियाओं से है।

तिब्बत में बौद्ध धर्म के अनुयायी ‘नियंगमा’ परंपरा में जिस ध्यान का अभ्यास करते हैं, वह योग की ही एक विशिष्ट शैली है।बौद्ध धर्म की यह शाखा ध्यान के अभ्यास को 9 यानों अर्थात 9 माध्यमों या वाहनों के माध्यम से पूर्ण करती है। इसे ‘परम व्युत्पन्न’ के नाम से भी जाना जाता है। इन 9 मार्गों में से छह मार्ग ‘योग यानास’ के रूप में जाने जाते हैं। ये हैं क्रिया योग, उप योग, योगा यान,महा योग ,अनु योग और अति योग। महायोग और अतियोग के ‘अनुत्तारा’ वर्ग में योग का प्रयोग चिकित्सकीय गुणों को समाहित किये हुए है। उसके प्रयोगों से जटिल व्याधियों के शमन संभव बताये गए हैं। कुछ तंत्र योग प्रथाओं में श्वांस और हृदय की गति का तालमेल बैठाया जाता है। इसके लिए 108 शारीरिक मुद्राओं का अभ्यास किये जाने का प्रावधान है।आजकल तिब्बत में एक नया शब्द प्रचलन में है -‘तिब्बती योगा’ यह ध्यान और श्वांस की एक ऐसी संतुलित पद्दति है जिसके माध्यम से हिमालय की बर्फीली वादियों में भी शरीर की ज़रूरी गर्मी को बरकरार रखा जा सकता है।
जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर भगवान महावीर की अनेक मुद्राएं योग की मुद्राओं की ओर संकेत करती हैं।जैन धर्म के पाठ -‘तत्त्वार्थ सूत्र’ में मन ,वाणी और शरीर की सभी गतिविधियों के संतुलन को योग की संज्ञा दी गयी है। जैन सिद्धांत के अनुसार ‘अस्रावा’ या ‘कार्मिक प्रवाह’ का कारण योग है।यही नहीं मुक्ति के मार्ग के सर्वाधिक सहायक सेतु ‘ सम्यक चरित्र’ की उत्पत्ति भी योग के माध्यम से ही संभव है। जैन धर्म में सन्यासी स्त्रियों हेतु 5 प्रमुख उल्लेख और 12 सामाजिक लघु प्रतिज्ञाएँ भी योग से ही उत्प्रेरित हैं। जैन धर्म में तीर्थंकरों को ‘पद्मासन’ अथवा ‘कायोत्सर्ग मुद्रा’ में बैठे हुए दिखाया गया है ;जो योग की ही मुद्राएं हैं।भगवान महावीर स्वामी की जो प्रतिमा सर्वाधिक लोकप्रिय है ;वह ‘मूलबंध आसन’ की मुद्रा में है। उन्हें योग की इसी मुद्रा में ‘कैवल्य ज्ञान’ की प्राप्ति हुई थी। उनकी ये मूर्तियां दूसरी से छठीं शताब्दी में निर्मित अजंता -एलोरा की गुफाओं में आज भी स्थित हैं।

सभी धर्मों और परम्पराओं में श्रेष्ठ को स्वीकारने की स्वतंत्रता रहती है। मानवीय चेतना का जैसे -जैसे विकास होता गया वैसे -वैसे यह तथ्य स्पष्ट होता चला गया कि योग का सम्बन्ध मनुष्य के शरीर से है। यदि शरीर स्वस्थ होगा तो मन मष्तिष्क भी स्वस्थ रहेंगे। इसी गुणतत्व के कारण भारत और भारत के बाहर योग को तेजी से अपनाया गया। इस्लामिक विद्वानों का मत है कि इस्लाम धर्म में भी योग का महत्त्व स्वीकार किया गया है। पांच वक़्त की नमाज़ परमात्मा की प्रार्थना के साथ -साथ शरीर को दुरुस्त रखने का एक व्यायाम भी है। ताकि गरिष्ठ से गरिष्ठ भोजन को पचाने के लिए अतिरिक्त श्रम की ज़रूरत ही न पड़े।

एक पुरानी कहावत है आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जैसे -जैसी मानवीय चेतना का विकास हुआ वैसे -वैसे जीवन को अधिक स्वस्थ और सुखी बनाने के उपायों पर अमल किया जाने लगा। प्रत्येक विधा को जीवन देने के लिए समय समय पर कोई न कोई महापुरुष अवश्य जन्म लेता है। योग के साथ भी ऐसा ही हुआ।ईसा से दो शताब्दी पूर्व काशी के निकट गोनिया नामक स्थान पर पतंजलि का जन्म हुआ था। बाद में वे काशी आकर नागकूप पर बस गए। इतिहास बताता है कि पतंजलि का कार्यकाल पुष्यमित्र शुंग (195 से 142 ईसा पूर्व) के शासन काल में था। पतंजलि संस्कृत के प्रकांड विद्वान महर्षि पाणिनि के शिष्य थे।उन्होंने योग को प्रतिष्ठा दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। पतंजलि ने हिन्दू धर्म दर्शन के कुल छह दर्शनों में से एक ‘योगदर्शन’ की रचना की। पतंजलि ने पांचवें वेद कहे जाने वाले ‘आयुर्वेद’ पर ग्रन्थ’चरक संहिता’ और ‘अष्टाध्यायी’ पर भाष्य ‘महाभाष्य’ लिखा। राजा भोज ने पतंजलि को तन के साथ मन का भी चिकित्सक कहा है।
‘योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शारीरस्य च वैद्यकेन।
योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां परजलिं प्राजलिरानतोऽस्मि।।’

मुनि पतंजलि ने योग के अष्टांगिक सूत्रों का प्रतिपादन किया।जिसे ‘अष्टांग योग’ कहते हैं। जो इस प्रकार हैं। नंबर एक – यम – इसके अंतर्गत पांच परिहारों की व्यवस्था की गयी है। अर्थात अहिंसा,झूठ,लोभ,वासना और गैर स्वामीभक्ति से बचना चाहिए। नंबर -दो : नियम -इसके तहत पांच धार्मिक क्रियाओं को करने का संकल्प , जो हैं -पवित्रता,संतुष्टि,तपस्या,स्वाध्याय और समर्पण। तीसरा सूत्र है – आसन : यानि आपकी बैठने की सही मुद्रा और ध्यान क्रिया के लिए शरीर की तैयारी। चौथा सूत्र है – प्राणायाम :अर्थात श्वांस की गति को नियंत्रित रखना ,दो श्वांसों के मध्य एक निश्चित दूरी का नियमित अभ्यास।पांचवा सूत्र है -प्रत्याहार : इसका सम्बन्ध हमारी आहार शैली से है। हमें कितना,कैसा,क्या,कैसे और कहाँ भोजन करना चाहिए इसके कुछ नियम निरूपित किये गए हैं।छठे सूत्र का सम्बन्ध धारणा से है- हमारी चिंतन और मनन की क्या गुणवत्ता और विशेषता हो इसको समझने की आवश्यकता है।सातवां सूत्र है -ध्यान : जब हम मन चित्त और मष्तिष्क के आधार पर शुन्य में विचरण करते हैं वही वास्तविक ध्यान है। आठवाँ और अंतिम सूत्र है समाधि :इसे विमुक्ति भी कहा जाता है। यह योगी व्यक्ति की ऐसी अवस्था है जब पदार्थ का चैतन्य के साथ विलय हो जाता है। इसके दो प्रकार है – ‘सविकल्प’ और ‘अविकल्प’। अविकल्प समाधि में संसार में वापस आने का कोई मार्ग या व्यवस्था नहीं होती। यह योग पद्धति की चरम अवस्था है।जहाँ से दिव्य चेतना के एक नए जगत का आविर्भाव होता है।
एक जगत तो वह है जहाँ हम मौजूद हैं और जगत ऐसा भी है जिसे हम सृजित करना चाहते हैं। हमारा कृत्य ही अंततः हमें निर्मित करता है। हम जो करते हैं वैसे ही हो जाते हैं।मुनि पतंजलि के योगदर्शन और बुद्ध की ध्यानस्थ अवस्थाओं के प्रभाव उनके जाने के बाद भी कईं सदियों तक जीवन व्यवहार का एक अनिवार्य अंग बनते चले गए। चौथी और पांचवीं शताब्दी में बौद्ध भिक्षुओं को दुर्गम दर्रों से यात्रा करनी पड़ती थी। ऐसे में उन्हें निर्जन स्थानों पर चोर -लुटेरों और जंगली जानवरों से आक्रमण का भय सताता रहता था। नालंदा विश्वविद्यालय के कुछ बौद्ध भिक्षुओं ने योग और ध्यान के माध्यम से आत्मरक्षा की युद्ध कलाओं का आविष्कार किया। मतलब इसके बाद उनका शरीर ही उनका हथियार था। इन्हीं युद्ध कलाओं को आज हम – जूडो -कराटे , कुंगफू और बॉक्सिंग के रूप में जानते हैं। अब थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ बहुत सी युद्ध कलाएं जो जापान ,चीन ,कोरिया , तिब्बत ,थाईलैंड ,बर्मा ,आदि में लोकप्रिय खेलों का रूप ले चुकी हैं ; उनकी पृष्ठभूमि में योग और ध्यान के गहरे मूलमंत्र निहित हैं। ध्यान की गहराई और योग के प्राणायाम के बिना कोई भी खिलाडी इन युद्ध कलाओं में आज भी प्रवीण नहीं हो सकता।

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