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गँगा तुम बहती हो क्यूँ ?

SHABDARCHAN
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श्री गँगा जयंती 25 अप्रैल पर विशेष
गँगा और गीता के बिना भारत का अस्तित्व संभव नहीं ! सदियों से भारतीय अध्यात्म और देशना का प्राणबिन्दु बनी रहने वाली ‘गीता’ शोक संतप्त और निराश मन को धोने का काम करती है ,तो गँगा तन के मैल से मुक्ति देकर पापविमोचनी के रूप में हृदय शिखरों के मध्य बहती है। भारत समूचे विश्व से पृथक है और इसकी सबसे बड़ी वज़ह यदि कोई है तो वह है पतित पावनी गँगा की अमृत तुल्य अविरल जलधारा। जिससे हम निर्मित होते हैं प्रायः उसी तत्त्व से खंडित भी होने की संभावनाएं बनी रहती हैं। गँगा के कारण यदि भारत अतिशय प्रतिष्ठित हुआ, तो गँगा की दुर्दशा देखकर विदेशी हमपर हँसते भी हैं। मानो हमसे कहना चाहते हों ;तुम्हें नहीं पता कि तुम कितनी मूल्यवान सम्पदा को गँवाने को आतुर हो ?’ हमने अपनी अनेक बेशकीमती विरासतों को गँवाया है ;समय रहते यदि नहीं चेते तो गँगा के कोपभाजन से बच नहीं पायेंगे !

बचपन में हम सब ने ही गँगा के अवतरण की कथाएँ पढ़ी हैं। परन्तु मौजूदा समय में देश की संसद में ही सांसद खड़े होकर गँगा के बारे में प्रश्न करने लगे ,तो गँगा अवतरण की संक्षिप्त चर्चा प्रासंगिक है। राजा दिलीप की दूसरी पत्नी के पुत्र भगीरथ के प्रयासों से गँगा का आगमन हुआ था। उन्होंने अपने पूर्वजों के अंतिम संस्कार और मुक्ति गमन हेतु गँगा को पृथ्वी पर लाने का प्रण किया। ब्रह्मा प्रसन्न हुये और गंगा को पृथ्वी पर भेजने का निर्णय किया। कथा कहती है कि तब गंगा ने ब्रह्मा से प्रश्न किया- ‘मैं इतनी ऊँचाई से जब पृथ्वी पर गिरूँगी, तो पृथ्वी इतना वेग और भार कैसे सह पाएगी?’ भगीरथ द्वारा भगवान शिव से निवेदन करने पर उन्होंने अपनी खुली जटाओं में गंगा के वेग को रोककर, एक लट को अवमुक्त किया, जिससे हिमालय से गंगा की अविरल धारा पृथ्वी पर प्रवाहित हुई। वह धारा भगीरथ के पीछे-पीछे गंगा सागर संगम तक गई। शिव के स्पर्श से गंगा और भी पावन हो गयी और पृथ्वी वासियों के लिये अतिशय श्रद्धा का केन्द्र बनी। पुराणों के अनुसार स्वर्ग में गंगा को ‘मन्दाकिनी’ और पाताल में ‘भागीरथी’ कहते हैं। इसी प्रकार एक पौराणिक कथा राजा शांतनु और गंगा के विवाह तथा उनके सात पुत्रों के जन्म की भी है। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के महाकाव्य भी नदियों की प्राण-प्रतिष्ठा के तानों-बानों में उलझे रहे हैं।

विश्व की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी गंगा भारत की अमूल्य धरोहर है। भारत और बांग्लादेश दोनों देशों में गमन गति की गणना के अनुसार गँगा लगभग 2510 कि.मी. का सफर तय करती हुई सागर से जा गले मिलती है। उत्तरांखण्ड में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुंदरवन तक विशाल भू-भाग को सींचती हुई गँगा भारत की प्राकृतिक संपदा का आधार बनकर उभरती है। भारतीय मानस की भावनात्मक आस्था भी गँगा की जलधार के इर्द-गिर्द ही घूमती है।।गँगा अपनी छोटी बहनों,मतलब अन्य सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान का पोषण करती है। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण गंगा का यह मैदान अपनी घनी जनसंख्या के कारण भी जाना जाता है।जहाँ-जहाँ गँगा बही उसी का दामन थामे हमारी पूर्व पीढ़ियाँ भी उसकी छाया तले बहती चली गईं। क्या प्रकृति ,क्या खेत खलिहान क्या पशु पक्षी और मानव सभी को आश्रय प्रदान करने वाली इस नदी को तभी तो माँ और देवी के रूप में पूजा गया। भारतीय पुराण और साहित्य गँगा के सौंदर्य और गरिमामयी महत्व से भरे पड़े हैं। गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन देखने को मिलते हैं।यह गँगा का ही जादू था की कवि रहीम को लिखना पड़ा –
‘अच्युत चरण तरंगिणी, शिव सिर मालति माल।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजौ इंदव भाल।।’
ऋग्वेद, महाभारत, रामायण एवं अनेक पुराणों में गँगा को पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित्श्रेष्ठा एवं महानदी कहकर सम्बोधित किया गया है। हिन्दी के आदि महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ तथा ‘वीसलदेव रास’ (नरपति नाल्ह) में श्री गँगा के महात्म्य का उल्लेख है। आदिकाल का सर्वाधिक लोक विश्रुत ग्रंथ जगनिक रचित ‘ आल्हाखण्ड’ में गंगा, यमुना और सरस्वती का उल्लेख है। । शृंगारी कवि विद्यापति, कबीर वाणी और जायसी के ‘पद्मावत’ में भी गँगा अपनी आन बान और शान से उपस्थित है। सूरदास और तुलसीदास ने भक्ति भावना और गंगा-माहात्म्य का वर्णन अत्यंत विस्तारपूर्ण ढंग से किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने कवितावली के उत्तरकाण्ड में ‘श्री गंगा माहात्म्य’ का वर्णन तीन छन्दों में किया है- इन छन्दों में कवि ने गंगा दर्शन, गंगा स्नान, गंगा जल सेवन, गंगा तट पर बसने वालों के महत्त्व को वर्णित किया है। रीतिकाल में सेनापति और पद्माकर का गंगा वर्णन श्लाघनीय है। पद्माकर ने गंगा की महिमा और कीर्ति का वर्णन करने के लिए ‘गंगालहरी’ नामक ग्रंथ की रचना की है। सेनापति कवित्त ‘रत्नाकर’ में गंगा माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहते हैं-‘पाप की नाँव को नष्ट करने के लिए गंगा की पुण्यधारा तलवार सी सुशोभित है।’
रसखान ने भी गंगा प्रभाव का सुन्दर वर्णन किया है। आधुनिक काल के कवियों में जगन्नाथदास रत्नाकर के ग्रंथ ‘गंगावतरण’ में कपिल मुनि द्वारा शापित सगर के साठ हजार पुत्रों के उद्धार के लिए भगीरथ की ‘भगीरथ-तपस्या’ से गंगा के भूमि पर अवतरित होने की कथा है। सम्पूर्ण ग्रंथ तेरह सर्गों में विभक्त और रोला छन्द में निबद्ध है। अन्य कवियों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, सुमित्रानन्दन पन्त आदि ने भी यत्र-तत्र गँगा का वर्णन किया है। गंगा नदी के कई प्रतीकात्मक अर्थों का वर्णन जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘भारत एक खोज’ (डिस्कवरी ऑफ इंडिया) में भी किया है।

इतनी सारी सामाजिक,धार्मिक पौराणिक और प्राकृतिक विशेषताओं के कारण भी दिव्य गंगा हमारे अज्ञान और उपेक्षा से जूझती रही है। गँगा के संपीपवर्ती बसे औद्योगिक नगरों के नालों की गंदगी सीधे गंगा नदी में मिलने से गंगा का प्रदूषण पिछले कई सालों से भारत सरकार और जनता की चिंता का विषय बना हुआ है। औद्योगिक कचरे के साथ-साथ प्लास्टिक कचरे की बहुतायत ने गंगा जल को भी बेहद प्रदूषित किया है। वैज्ञानिक जांच के अनुसार गंगा का बायोलाजिकल ऑक्सीजन स्तर 3 डिग्री (सामान्य) से बढ़कर 6 डिग्री हो चुका है। गङ्गा में 2 करोड़ 90 लाख लीटर प्रदूषित कचरा प्रतिदिन गिराया जा रहा है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर-प्रदेश की 12 प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गँगा का जल है। यह घोर चिन्तनीय है कि गंगा-जल न स्नान के योग्य रहा, न पीने के योग्य रहा और न ही सिंचाई के योग्य।
गँगा के पराभव का अर्थ होगा, हमारी समूची सभ्यता का अन्त। गँगा में बढ़ते प्रदूषण पर नियंत्रण पाने के लिए घड़ियालों की मदद ली जा रही है।शहर की गंदगी को साफ करने के लिए संयंत्रों को लगाया जा रहा है और उद्योगों के कचरों को इसमें गिरने से रोकने के लिए कानून बने हैं। इसी क्रम में गँगा को ‘राष्ट्रीय धरोहर’ भी घोषित कर दिया गया है और ‘गँगा एक्शन प्लान’ व ‘राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना’ लागू की गई हैं। हांलांकि पूर्व में इसकी सफलता पर प्रश्नचिह्न भी लगते रहे हैं। गंगा एक्शन प्लान के नाम पर अरबों रुपये खर्च करने के बावजूद गंगा का प्रदूषण इस हद तक बढ़ चुका है कि उसका जल न तो पीने योग्य रहा और न ही स्नान के काबिल। गंगा एक्शन प्लान की असफलता इसका जीता-जागता प्रमाण है कि किसी योजना के प्रति शासन का दृष्टिकोण कितना ही सकारात्मक क्यों न हो, लेकिन यदि नौकरशाही का रवैया ठीक नहीं तो वह योजना कुल मिलाकर पैसे की बर्बादी ही साबित होती है। गंगा जैसा हाल ही यमुना का भी है। चूँकि गँगा पापविमोचनी है अतः नेताओं ने जमकर राशियों के दुरूपयोग किये हैं परन्तु अब जनता भी इस विषय में जागृत हुई है। इसके साथ ही धार्मिक भावनाएँ आहत न हों इसके भी प्रयत्न किए जा रहे हैं।इतना सबकुछ होने के बावजूद गँगा के अस्तित्व पर संकट के बादल छाए हुए हैं।
हमारे नीति-नियंता यह देखने-समझने से इन्कार कर रहे हैं कि किस तरह विश्व के अन्य देशों में नदियों के प्रदूषण को सही योजनाओं और उन पर अमल की दृढ़ इच्छाशक्ति के सहारे समाप्त कर लिया गया। लंदन की टेम्स नदी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। पचास वर्ष पहले यह नदी इस कदर प्रदूषित थी कि उसे जैविक रूप से मृत घोषित कर दिया गया था, लेकिन एक बार ब्रिटेन के शासकों ने उसे प्रदूषण मुक्त बनाने की ठान ली तो इसे विश्व की सबसे साफ-स्वच्छ नदियों में शामिल कराकर ही दम लिया। सबसे पहले इस नदी में सीधे उड़ेले जा रहे दूषित जल को रोका गया। फिर नए सीवेज शोधन संयंत्रों की स्थापना की गई और प्रदूषण के खिलाफ कड़े कानून बनाए गए। आखिर जिन तौर-तरीकों से टेम्स के प्रदूषण को दूर किया जा सकता है उन्हीं के सहारे अपने देश में गंगा और यमुना सरीखी नदियों को साफ-स्वच्छ क्यों नहीं किया जा सकता?
2007 में प्रस्तुत ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ की रिपोर्ट के अनुसार हिमालय पर स्थित गँगा की जलापूर्ति करने वाले हिमनद की 2030 तक समाप्त होने की संभावना है। इसके बाद गँगा का बहाव मानसून पर आश्रित होकर मौसमी ही रह जाएगा।इससे बड़ा दुर्भाग्य संभवतःऔर कोई होगा भी नहीं ? हमारी आध्यात्मिक प्रेरक कथाएं यह सुस्पष्ट करती हैं की कार्य और कारण का परस्पर सम्बन्ध होता है। हमारी इतनी निर्दयता,लापरवाही,उदासीनता और भ्रष्ट आचरण के बाद भी गँगा की सदाशयता बानी हुई हैं। दूर कहीं रेडियो पर गाना बज रहा है -गँगा तुम बहती हो क्यूँ ?

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