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( चार धाम यात्रा) सानिध्य संस्कृति और प्रकृति का

SHABDARCHAN
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भारतीय सभ्यता और संस्कृति में ‘गीता’ और ‘गंगा’ का सर्वोच्च स्थान है। गंगा एक ओर जहाँ तन के मैल से मुक्ति प्रदान करती है, वहीँ दूसरी ओर गीता मन के मैल को निस्फूर करती है। गंगा का सम्बन्ध जहाँ भगवान शिव से है, वहीँ गीता श्री कृष्ण के मुखारविंद से झरा ऐसा अमृत प्रसाद है; जिसे सदियों से प्राप्तकर मानवता स्वयं को धन्य और उपकृत अनुभव करती रही है। यमुना श्री कृष्ण के अंग-संग चली है, तो गंगा सदाशिव की जटाओं में उलझी जीवन के मुक्ति पथ को सुलझाने में व्यस्त है। इन समस्त मूल्यों का निकटतम अनुभव ही चार धाम की यात्रा है। एक ऐसी यात्रा जहाँ भारतीयता के गौरव कलश आकाश को छूते हैं ; जहाँ की प्राकृतिक वादियों में जीवन के संताप से उत्तप्त मन चिर विश्राम का साक्षी बनता है। यमुनोत्री-गंगोत्री,केदारनाथ और बद्रीनाथ हिमवादियों में मानवीय प्रेम और श्रद्धा के प्रदीप्त शिखर हैं; जहाँ से शांति और धर्म के नित नए झरने उदित होते हैं।जहाँ आशा और विश्वास के नए पुष्प उमगते हैं।
हिन्दू धर्म की गहरी मान्यताओं में तीर्थ यात्रा और धर्म-कर्म का प्राधान्य रहा है। हिन्दुओं की सनातन परंपरा में चार पुरुषार्थों को सर्वोच्च मान्यता प्रदान की गयी है -धर्म,अर्थ ,काम और मोक्ष। चार धाम की यात्रा इन्हीं चारों पुरुषार्थों की परिक्रमा है। प्रत्येक हिन्दू की यह इच्छा रहती है कि वह अपने जीवन काल में कम से कम एक बार अवश्य चार धाम की यात्रा का सुख भोगे। यही वजह है कि दो वर्ष पूर्व उत्तराखंड में आई भयानक बाढ़ की विभीषिका के बाद भी यहाँ श्रद्धालुओं की संख्या में कोई कमी नहीं आई है। लोग सपरिवार इन यात्राओं में शामिल होकर आनंद और उत्सव की अनुभूति करते हैं।यह यात्रा वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि यानि अक्षय तीज से प्रारम्भ होकर कार्तिक पक्ष की दीपावली से दो दिन बाद तक यानि यम द्वितीया-भैया दोज तक चलती है।अर्थात अप्रैल के अंतिम सप्ताह से अंत अक्टूबर या मध्य नवम्बर तक यात्रा का समय रहता है। नवम्बर से अप्रैल तक यहाँ भारी हिमपात होने से मार्ग अवरुद्ध रहते हैं, तब यात्रा नहीं होती।
चार धाम की यात्रा का श्री गणेश यमुनोत्री की यात्रा से होता है। हरिद्वार से यमुनोत्री 246 कि.मी. की दूरी पर है।हरिद्वार से ऋषिकेश , देहरादून ,मसूरी होते हुए बड़कोट पहुँचते हैं।आपदा के बाद से सरकार द्वारा देहरादून में ही चार धाम यात्रियों का पंजीकरण शुरू किया गया है ;आपकी एक फोटो पहचानपत्र के आधार पर आपका पंजीकरण करके आपको एक पास दिया जाता है ;जो यात्रा के दौरान कईं स्थानों पर चैक किया जाता है। बडकोट में रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन सवेरे लगभग 5 बजे यमुनोत्री के लिए यात्रा शुरू होती है। बस -कार या निजी वाहन द्वारा स्याना चट्टी ,हनुमान चट्टी होते हुए लगभग दो घंटे के सफर के बाद जानकी चट्टी पंहुचा जाता है। जानकी चट्टी से आगे 6 कि.मी. की पैदल चढ़ाई है।जो लगभग ढाई से तीन घंटे में पूरी हो जाती है।असहाय और बुजुर्ग लोगों के लिए हाथ पालकी और कमर टोकरी का भी प्रबंध रहता है।खच्चर और घोड़े भी मिलते हैं जिन्हें मोलभाव करके लिया जा सकता है। वैसे पैदल यात्रा का अपना ही मज़ा है।रास्ते में अनेक जगहों पर खाने -पीने की दुकाने हैं। लेकिन मोदी जी का सफाई अभियान लगता है वहां के स्थानीय नागरिकों की समझ में अभी नहीं आया है ,तभी तो वे प्लास्टिक के रैपर और पॉलिथीन धड़ाधड़ पहाड़ियों से नीचे सरकाते रहते हैं।
यमुनोत्री यानि जहाँ से यमुना नदी का उद्गम हुआ। पर्वत माला को चीरकर श्वेत जल की दूध जैसी रेखाएं धरती का आलिंगन करती हैं, तो मन रोमांचित हो उठता है। यहाँ देवी यमुना का मंदिर है। दर्शन से पूर्व स्नान के लिए गर्म जल के स्रोत का एक कुण्ड पुरुषों के लिए और दूसरा स्त्रियों के लिए है। इस कुण्ड में स्नान करते ही सारी थकान रफ़ू चक्कर हो जाती है।यमुनोत्री में भगवान कृष्ण की पूजा का विधान है। यहाँ से एकत्रित जल द्वारा घर में छींटें मारने से वास्तु दोषों से मुक्ति मिलने की मान्यता है। इस जल से शिवलिंग का अभिषेक नहीं किया जाता।पूजा के लिए ताज़े फूल और फल ऊपर नहीं मिलते जिन्हें ये चाहिए उन्हें नीचे से ही लेकर जाना चाहिये। मंदिरप्रांगण में ही खौलते हुए जल का भी सोता है
जिसमे छोटी सी पोटली या रुमाल में चावल बांधकर लटकाने से वे कुछ ही क्षणों में पक जाते हैं। इन चावलों के प्रसाद का यहाँ विशेष महत्व है। इन्हें श्रद्धालुजन रात में सुखाकर अपने पास रख लेते हैं और बाद में ये कभी भी खराब नहीं होते।
इन्हें विभिन्न अवसरों पर होने होने आयोजनों में प्रसाद में डालने का रिवाज है। माना जाता है इनके सम्पुट से प्रसाद में यमुनोत्री देवी की कृपा समाहित हो जाती है। दोपहर बाद आप जानकीचट्टी के लिए वापस लौट सकते हैं। जानकी चट्टी में भी रुकने के इंतज़ाम हैं लेकिन बड़कोट में रुकना अधिक बेहतर रहता है। बड़कोट में वापस रात्रि विश्राम के बाद आप अगले दिन प्रातः गंगोत्री के लिए प्रस्थान करते हैं। हरिद्वार से गंगोत्री की दूरी 272 कि.मी. है।बड़कोट से ही ब्रह्मखाल होते हुए उत्तरकाशी पहुंचकर रात्रि विश्राम करना उचित रहता है। उत्तरकाशी में अनेक होटल और धर्मशालाएं हैं जहाँ अपने बजट के मुताबिक रुका जा सकता है। अगले दिन प्रातः ही उत्तरकाशी से गंगोत्री के लिए प्रस्थान करना होता है। भटवाड़ी ,झाला, हरसिल,लंका होते हुए भैरों घाटी आती है। यहाँ से गंगोत्री की दूरी मात्र 10 कि.मी. है।गंगोत्री में यमुनोत्री की तरह कोई चढ़ाई नहीं है। गंगोत्री मंदिर से लगभग एक कि.मी. की दूरी पर बस- टेम्पो स्टेण्ड है, जहां से पैदल विचरते हुए गंगोत्री तक जाया जाता है। बीच मार्ग पर अनेक दुकानें हैं जहां से आप पूजा-पाठ का सामान ले सकते हैं। यहाँ से ताम्र पात्र में गंगा जल भरकर ले जाने की मान्यता है। छोटे बड़े आकार के पात्र वहीँ मिलते हैं आप प्लास्टिक कैन में भी जल भरकर ला सकते हैं।
यहाँ भगीरथ ने अथक साधना के उपरान्त गंगा को धरती पर अवतरित किया था। यहाँ माँ गंगा का एक भव्य और दिव्य मंदिर है। गंगा के उद्गम स्थल पर पूजा यज्ञ-हवन का अपना ही महत्त्व है। यहाँ श्रद्धालुजन गंगा के अतिशीतल जल में डुबकियां लगाकर स्वयं को कृतार्थ अनुभव करते हैं। जो लोग द्वादश ज्योतिर्लिंगम् की यात्रा करते हैं उनके लिए यहाँ से ताम्र पात्र को सील बंद करके दिया जाता है। इस जल को रामेश्वरम स्थित ज्योतिर्लिंगम् पर अभिषेक करने से ज्योतिर्लिंगम् यात्रा पूर्ण मानी जाती है। रामेश्वरम में पुजारी सीलबंद जल ही स्वीकारते हैं।कुछ लोग यहाँ से केदारनाथ शिवालय हेतु भी जल लेकर जाते हैं।दोपहर बाद वापस उत्तरकाशी में आकर विश्राम कर सकते हैं।उत्तरकाशी में भी काशी-विश्वनाथ के नाम से एक प्राचीन शिवालय है, समय बचे तो वहां भी होकर आ सकते हैं।
अगले दिन की यात्रा श्री केदारनाथ ज्योतिर्लिंगम् हेतु प्रारम्भ होती है। उत्तरकाशी से प्रस्थान करके टिहरी और श्रीनगर होते हुए गुप्तकाशी पहुँचते हैं। रास्ते में ही केदारनाथ यात्रा के लिए मेडिकल चेकअप किया जाता है। यह सरकार द्वारा निःशुल्क है।डॉक्टर जाँच करते हैं कि आप उच्च रक्त चाप, मधुमेह अथवा सांस संबंधी किसी गंभीर बीमारी के शिकार तो नहीं हैं। दस-पंद्रह मिनट में आपको सर्टिफिकेट दे दिया जाता है जिसे केदारनाथ के लिए हवाई प्रस्थान से पूर्व चेक किया जाता है।गुप्तकाशी एक सौम्य और सुन्दर नगर है जहाँ रोज़मर्रा की ज़रूरत की सभी चीजें आसानी से मिल जाती हैं। यहाँ एक प्राचीन अर्ध नारीश्वर महादेव मंदिर है, जहाँ थोड़ी सी पैदल चढ़ाई करके पहुंचा जा सकता है। गुप्तकाशी से 11 कि.मी. की दूरी पर ‘फाटा’ नामक स्थान है। यहाँ से केदारनाथ के लिए कईं कंपनियां हैलीकॉप्टर सेवा प्रदान करती हैं। सात से आठ हज़ार रूपये प्रतिव्यक्ति शुल्क अदा करके मात्र 9 मिनट में केदार पर्वत पर पहुंचा जा सकता है। दो वर्ष पूर्व आई बाढ़ की विभीषिका ने पूरी घाटी को प्रभावित किया है। अभी भी सभी रस्ते ठीक नहीं किये जा सके हैं। गुप्तकाशी से केदारनाथ तक पैदल मार्ग भी है जो फाटा ,सोनप्रयाग,गौरी कुण्ड होते हुए रामबाड़ा तक पहुँचता है। लेकिन आपदा के बाद यह मार्ग 14 कि.मी. के स्थान पर लगभग 21 कि.मी. हो गया है।हमारे गाइड ने बताया कि गौरीकुण्ड में अब स्नान करने की व्यवस्था नहीं रही है। रास्ते में भी भारी बर्फ जमी है अतः पैदल यात्रा उचित नहीं। हमारे दल के सभी 8 सदस्यों ने वायुमार्ग से ही केदारनाथ जाने का निश्चय किया।
केदारनाथ में चहुँ और विध्वंश के निशान अभी भी मौजूद हैं। मुख्य मार्ग भी अभी पूरी तरह बनकर तैयार नहीं हुआ है। लेकिन मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ है। हर ओर से ओउम नमः शिवाय के स्वर गूँज रहे है। पांडवों द्वारा स्थित मंदिर पूर्णतयः सुरक्षित है। मंदिर में नंदी और मुख्य गृह में स्वयं सदाशिव विराजमान हैं। यहाँ केसर और इलायची चढाने और प्रसाद में उसे लेने की मान्यता है। केदार लिंगम पर गौ घृत के लेपन का महत्त्व है, घी नीचे से ही लेकर जाएँ ऊपर मुश्किल से मिलता है। ताजे पुष्प, बिल्व पत्र और धतूरा नीचे से ही ले जाएँ तो बेहतर है। केदारनाथ मंदिर के पीछे आदि शंकराचार्य की एक समाधि हुआ करती थी वह आपदा में बह गयी। वहां एक विशाल शिला ने आकर जल के प्रचंड वेग को दो हिस्सों में विभक्त करके मंदिर की रक्षा की थी ,अब उस शिला की भी पूजा की जाती है।सरकार ने केदारनाथ धाम पर श्रद्धालुओं के रात्रि विश्राम की भी व्यवस्था की हुई है वहां अस्थायी टेंटों में रुका जा सकता है, जहाँ रुकने और खाने की सभी व्यवस्थाएं निःशुल्क हैं। चारों ओर बर्फ से ढकीं पर्वत मालाएं और नीला आकाश अपने आप में रोमांचक अनुभव हैं।
केदारनाथ से चलकर संध्याकाळ वापस गुप्तकाशी में विश्राम करना पड़ता है। गुप्तकाशी से लगभग 30 कि.मी. की दूरी पर सोनप्रयाग के समीप त्रियुगी नारायण मंदिर भी दर्शनीय स्थल है। यहाँ भगवान शिव और पार्वती का विवाह हुआ था। गुप्तकाशी से छह कि.मी. की दूरी पर कालीमठ नामक स्थान है यहाँ भगवती की सिद्धपीठ है, जहाँ सरस्वती नदी के तट पर स्थित मंदिर में यन्त्र स्वरुप में शक्ति की पूजा का विधान है। इसे भी देखा जा सकता है।
अगले दिन चार धाम के अंतिम धाम बद्रीनाथ की यात्रा प्रारम्भ होती है। यही इस यात्रा का क्रम भी है। गुप्तकाशी से चलकर उखीमठ जाया जाता है।उखीमठ में ही भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर है। शीत ऋतु में जब ऊपर के कपाट बंद हो जाते हैं तब यहीं श्री केदारनाथ की गद्दी विराजती है।इसको भी अवश्य देखना चाहिए। उखीमठ से चोपता,मंडल ,पीपलकोटि ,घाट ,हेलंग, जोशीमठ और विष्णुप्रयाग होते हुए बद्रीनाथ पहुंचा जाता है।विष्णुप्रयाग में धौली गंगा का वेग देखने लायक है।बस स्टेण्ड से पैदल घूमते हुए मंदिर जाया जा सकता है। यहाँ कोई चढ़ाई नहीं है।
बद्रीनाथ में भगवान विष्णु श्याम प्रस्तर ध्यान स्वरुप में विध्यमान हैं। पद्मासन में विराजित भगवान के ललाट में हीरा सुशोभित है। यहाँ के मंदिर की आभा देखने लायक है। श्री बद्रीनाथ धाम अलकनंदा नदी के दक्षिणी तट पर अवस्थित है। उनके अगल बगल में नर-नारायण ,श्री उद्धव ,कुबेर और नारद की प्रतिमाएं शोभायमान हैं। परिक्रमा में हनुमान, गणेश, लक्ष्मी,धारा ,कर्ण आदि की मूर्तियां हैं। मंदिर के पृष्ठ भाग में धर्मशिला नामक एक स्थान है। बायीं ओर एक कुण्ड है उत्तर की ओर एक कोठरी में पुरी के रक्षक ‘घंटाकरण’ भी विराजमान हैं। पूर्व की ओर गरुड़ जी की पाषाण मूर्ति ओर दक्षिण में गुंबददार श्री लक्ष्मी देवी का सुन्दर मंदिर है। यह मंदिर प्रातः दो बजे से खुल जाता है ओर देर रात तक विभिन्न पूजाएं और अनुष्ठान होते रहते हैं। मंदिर समिति की तरफ से विशेष पूजा -प्रार्थना के लिए अलग -अलग शुल्क निर्धारित किया गया है। पहले से बुकिंग कराना अच्छा रहता है।मंदिर के नीचे तट पर “तप्तकुण्ड” है। इसमें गर्म जल का स्रोत है जहाँ स्नान का विशेष महत्व है।यहाँ ‘ब्रह्कपाल’ नामक स्थान पर पितृ विसर्जन और पिंडदान की प्रक्रिया पूर्ण होती है।
बद्रीनाथ से चार कि.मी. की दूरी पर भारत का सीमान्त गाँव ‘माना’ है। यहाँ के निवासी बहुत ही प्यारे हैं। यहाँ अलकनंदा और सरस्वती का संगम होता है। यहीं से सरस्वती का उद्गम भी हुआ है। वहां सरस्वती का एक छोटा सा मंदिर स्थित है।मई में भी चारों और बर्फ जमीं हुई है। माना के निवासी स्थानीय हुनर के साथ अत्यंत गर्म कपड़े अपने हाथों से बुनते हैं जो गुणवत्ता में बहुत उम्दा और रेट में बहुत सस्ते होते हैं इनकी खरीदारी सूझ बूझ भरा कदम है। कुल मिलाकर चारधाम यात्रा प्रकृति और संस्कृति का एक ऐसा संगम है जिसका अनुभव एक बार अवश्य करना चाहिए। यह यात्रा 11 रात्रि 12 दिन में आनंद पूर्वकसंपन्न हो जाती है।
कहाँ ठहरें ?
चार धाम यात्रा के प्रायः सभी गंतव्यों पर गढ़वाल मंडल विकास निगम और कुमायूं मंडल विकास निगम के अतिथि गृह और आवास स्थल बने हुए हैं। पूर्व में बुकिंग करके जाना उचित रहता है। ये दोनों उपक्रम सरकारी हैं और चार धाम यात्रा को भी आयोजित करते हैं। इनकी वेबसाइट पर जाकर ऑनलाइन बुकिंग करायी जा सकती है। पेमेंट भी डेबिट या क्रेडिट कार्ड से किये जाने के विकल्प उपलब्ध हैं। 12 दिन 11 रातों के लिए प्रति सोमवार दिल्ली से चलने वाले समूह में शामिल होने वाले प्रति व्यक्ति का शुल्क 20800/- है। बच्चे के लिए 19890 /- तथा वरिष्ठ नागरिक के लिए 19430/- है। इसमें आना जाना रहना सहना खाना पीना सब शामिल है। कुली और पिट्ठू आदि का व्यय स्वयं वहन करना होता है। जुलाई के बाद शुल्क में थोड़ी कटौती कर दी जाती है। वेब ठिकाना है-
kmvn.gov.in
uttarakhandtourism.gov.in
http://uttarakhandtourism.net.in
यही नहीं अनेक प्राइवेट टूर ऑपरेटर भी दो धाम तथा चार धाम यात्रा का संचालन करते हैं।जिनके रेट भी कमोबेश ऐसे ही हैं।
ऋषिकेश से प्राइवेट टैक्सी करके भी जाया जा सकता है। पहाड़ पर प्रति कि.मी.रेट मैदान के मुकाबले लगभग दोगुने होते हैं। मोल भाव करके तय किया जा सकता है। अनुभवी और साख वाले व्यक्तियों से व्यवहार करना उचित रहता है। अपने वाहन से स्वयं ड्राइव करके जाने से बचे। मैदान के चालक पहाड़ की ड्राइविंग में दिक्कत का सामना कर सकते हैं।
लगभग सभी स्थानों पर प्रति दिन 800 रूपये से लेकर 2000 रूपये तक में अच्छे होटल और रिसॉर्ट्स मिल जाते हैं। खाने पीने के लिए सभी जगह सब कुछ मिल ही जाता है। अब दो दिन में चार धाम यात्रा हैलीकॉप्टर द्वारा भी करायी जा रही है जिसका शुल्क लाखों में है।

(लेखक मई मध्य 2015 में इस यात्रा से लौटे हैं।)
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