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मानवीय चेतना के सर्वोच्च शिखर : भगवान महावीर

SHABDARCHAN
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भारत की पुण्यभूमि पर अनेक अवसर ऐसे आये, जब यहाँ मानवीय चेतना का परम उद्घोष हुआ। जब इस धरती पर ऐसी देह अवतरित हईं जिन्होंने अपने श्रेष्ठतम कृत्यों से मनुष्य और परमात्मा के मध्य की दूरी को गिरा दिया। असंभव को संभव करने वाले ऐसे व्यक्तित्वों के समक्ष समूची मानवता नतमस्तक हुई। सभ्यता और संस्कृति के मंदिरों पर नये मूल्यों और देशनाओं के स्वर्ण कलश स्थापित हुए। सदियों उपरान्त आज भी हम उन महानतम आत्माओं की प्रज्ञा के आलोक में अपने अनुत्तरित प्रश्नों के नए ताने -बाने बुनने को विवश हैं। ऐसे ही एक महान व्यक्तित्व थे – वर्धमान महावीर ! सदियों से उनके ज्ञान की छाया में मनुष्यता ने अनेक उपलब्धियों के सोपानों को आत्मसात किया है।जीवन के मुरझाये हुए निष्प्राण मरुस्थल में एक ताज़ा हवा का झौंका हैं – महावीर।

वैशाली प्रान्त के क्षत्रिय कुण्डलपुर के सम्राट सिद्धार्थ और रानी त्रिशला के घर ईसा पूर्व 599 के चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की त्रियोदशी को एक आत्मा ने शरीर का अवतरण किया। नन्हें शिशु के जन्म पूर्व ही अभूतपूर्व रूप से सम्राट के धन -धान्य में अतिशय वृद्धि हुई थी, इसी से प्रेरित और प्रभावित होकर सम्राट पिता ने अपने पुत्र का नाम रखा -वर्द्धमान ! वर्द्धमान यानि जिसके आगमन से सर्वस्व में वृद्धि होने लगे।माता त्रिशला एक विदुषी महिला थी। उन्होंने बाल्यकाल से ही आवश्यक बातों की जानकारी वर्द्धमान को दे रखी थी। एक दिन जब 8 वर्ष के वर्द्धमान को विद्यालय ले जाया गया, तो उन्हें वह सब आता था जो उनके आचार्य जानते थे। पहले ही दिन उन्हें औपचारिक शिक्षा से मुक्ति दे दी गयी। ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि पूर्व प्रज्ञा से अभिपूरित वर्द्धमान उसके बाद कभी विद्यालय नहीं गए। जीवन के प्रति दृष्टि और गहरी संवेदनाओं ने उन्हें सर्वोच्च चेतना से ओत -प्रोत कर दिया। सत्य की खोज और जीवन के वास्तविक लक्ष्य के प्रति गहरे अनुराग ने उन्हें राजमहल में रहते हुए भी सन्यासी चित्त में रुपांरित कर दिया। माता -पिता के देहावसान और भाई नन्दिवर्धन के राज्याभिषेक के बाद वर्द्धमान अपनी अज्ञात यात्रा के पथ पर निकलने को आतुर थे।
आज पश्चिम के देश जिस लोकतंत्र के उन्नयन का श्रेय अपने सर लेकर फूले नहीं समाते; उनको यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जिस राज्य के स्वामी वर्धमान के पिता थे. वहां उनके शासन काल से भी पहले से स्वस्थ गणतंत्र अस्तित्वमान था। यानि भारत में 2500 वर्ष पहले भी यह व्यवस्था थी कि जनता के लिए किये जाने वाले निर्णयों में विभिन्न वर्गों से नियुक्त राजसी पदाधिकारियों का मत मान्य होता था।
वर्द्धमान को सभी लोग अत्यंत प्रेम करते थे लेकिन कोई भी उनके संन्यास के निर्णय से सहमत नहीं था। अपनी बात पर अडिग वर्द्धमान लगभग तीस वर्ष की अवस्था में एक सादे और दिव्य समारोह में अपने राजसी जीवन से विमुक्त हो सत्य मार्ग के अनुगामी हो गए। उन्होंने अपने शरीर पर बस एक चादर सरीखा वस्त्र रखा; जो दूसरे ही दिन एक कँटीली झाड़ी में फंस गया।परमात्मा का संकेत समझ उन्होंने इस चीर को भी त्याग दिया। परमशुद्ध तत्त्व के अन्वेषी वर्द्धमान के पास ओढ़ने के लिए आकाश था, तो बिछाने के लिए पृथ्वी। कालांतर में उनके द्वारा प्रतिपादित एक शाखा – ‘दिगंबर’ इसी से अनुप्राणित है। जिसका भावार्थ होता है ऐसे व्यक्ति जिनके लिए अब अम्बर ही वस्त्र है।
जैन धर्म की परंपरा में कुल 24 तीर्थंकर हुए हैं। वर्द्धमान 24 वें और अंतिम तीर्थंकर हैं। सबसे पहले तीर्थंकर थे भगवान ऋषभदेव जिन्हें आदिनाथ के नाम से भी जाना जाता है। ऋषभदेव का जन्म अयोध्या राज्य के इक्ष्वाकु क्षत्रिय वंश में हुआ था। ऋषभदेव की दो पत्नियां थीं। पहली रानी से भरत और ब्राह्मी तथा दूसरी से बाहुबली और सुंदरी का जन्म हुआ। ऋषभ देव ने ब्राह्मी को भाषा,सुंदरी को गणित,भरत को वास्तु और स्थापत्य तथा बाहुबली को चित्रकला में निष्णात किया। भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भारत पड़ा ,यह सर्वविदित है। ऋषभदेव ने लगभग 40 वर्ष की अवस्था में गृह का त्याग करके संन्यास का वरण किया। भरत को साम्राज्य सौंपकर वे धर्म की यात्रा पर निकल गए। उन्होंने दूर- दूर के देशों में भ्रमण किया। शांति और समता के उपदेश देते हुए ऋषभदेव अंततः कैलास – मानसरोवर पहुँचे। वहां ‘शिव कवच’ की रचना के उपरान्त वे शिवतत्व में विलीन हो गए। उनके बाद और महावीर से पूर्व जैन धर्म में 22 तीर्थंकर और हुए जिनके नाम हैं-अजितनाथ,संभवनाथ,अभिनन्दन,सुमतिनाथ ,पदमप्रभ,सुपार्श्वनाथ,चंद्रप्रभ, सुविधिनाथ,शीतलनाथ,श्रेयांसनाथ,वासुपूज्य,विमलनाथ,अनंतनाथ,धर्मनाथ,शांतिनाथ,कुन्थुनाथ,अरहनाथ,
मल्लिनाथ,मुनिसुव्रत , नमिनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ।
साढ़े बारह वर्षों तक वर्द्धमान सत्य के अनुसन्धान में सक्रिय रहे। वे गाँव -गाँव गली-गली विचरते रहे।वर्द्धमान ने अपने जीवन में अतिशय त्याग की मिसाल पेश की। उन्होंने अपनी तपश्चर्या को उच्चतम आयाम प्रदान किये। उन्होंने अपने प्रमाण से सिद्ध करके दिखा दिया कि जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं अत्यंत सूक्ष्म हैं ,उनके लिए किये जाने वाला प्रलाप सिवाय मूर्खता के कुछ भी नहीं। जीवन के वास्तविक सत्यों को उद्घाटित करने जब भी कोई निकला है उसे अत्यंत कंटकाकीर्ण मार्गों का अनुसरण करना पड़ा है। वर्द्धमान भी इससे अछूते न थे। उन्होंने अत्यंत विपरीत और कठिन परिस्थितियों में अपने लक्ष्य को साधे रखा।उनके पास मात्र अपनी अंतर्प्रज्ञा शक्ति और चेतना के कुछ भी नहीं था। न कोई वस्त्र न कोई बर्तन न कोई घर न कोई साथी। निपट अकेले सत्य के सम्बल पर वर्द्धमान ने जीवन के कटु सत्यों का साक्षात्कार किया। अडिग रहकर सबके प्रति दया और प्रेम के बीज अपने हृदय में लिए वर्द्धमान सोये और खोये मनुष्यों को उनका वास्तविक पता बताते घूमते रहे।
प्रज्ञावान और अति विशिष्ट प्रतिभा संपन्न विभूतियों को प्रायः समाज विक्षिप्त समझता है। वर्द्धमान के साथ भी यही हुआ उन्हें विक्षिप्त मानकर लोगों ने उनके साथ अत्यंत घृणित व्यवहार किये। उन्हें पत्थर मारे गए। डंडों से लहूलुहान कर दिया गया। उनके ऊपर कुत्ते छोड़े गए। उन्हें जहरीले सर्पों से कटवाया गया। उन्हें प्रवचन के दौरान गावों से खदेड़ दिया गया ,यही नहीं उनके ऊपर सार्वजनिक रूप से थूका तक गया। परन्तु परमात्मा अपने बच्चों की त्रुटियों पर उनसे बदला थोड़े ही लेता है ? वर्द्धमान मुस्कुराते रहे। उनकी प्रार्थना थी- ‘हे प्रभु सब को सदबुद्धि देना।’ उन्होंने मानवीय संवेदनाओं और विचारों पर विजय प्राप्त की। उन्होंने भूख -प्यास ,सर्दी गर्मी ,क्रोध ,प्रेम ,बैर और मोह आदि भावों को जीत लिया, तभी तो उन्हें कहा गया ‘महावीर’ ! यानि जिसके लिए अब कुछ भी ऐसा शेष नहीं है, जो जीते जाने योग्य हो !
महावीर की मान्यता थी कि ‘हिंसा की समाप्ति हिंसा से नहीं हो सकती। वैर से कभी वैर नहीं मिटाया जा सकता। आग से कभी आग बुझी है भला ! खून को खून से नहीं धोया जा सकता। ‘उनकी देशना थी कि यदि व्यवहार में परस्पर कोई कटुता उत्पन्न हो जाये, तो उसे भोजन करने से पहले -पहले समाप्त कर लेना चाहिए। नहीं तो भोजन शरीर के लिए विष होकर बिमारियों का कारण बनेगा। महावीर कहते थे – ‘सच्चे सन्यासी का लक्षण है पूर्ण शांति। ‘
महावीर को ‘कैवल्य ज्ञान'(जिसमें कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रहता ) की उपलब्धि हुई। उन्होंने उपवास साधना की श्रृंखला में नए नियमों का आविर्भाव किया। जैन ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि महावीर ने युगल उपवास रखे। उपवास काल में जल भी ग्रहण नहीं किया। महावीर ने साढ़े बारह वर्ष और एक पक्ष (लगभग 4577 दिन ) में मात्र 350 दिन ही भोजन किया। जितना उनकी अंजुली में आता बस उतना ही खाते थे। उनकी मान्यता थी कि हमारे आमाशय का आकार हमारी अंजुली जितना है उतना ही भोजन जीवन चर्या हेतु पर्याप्त है। यही से ‘करपात्री’ परंपरा का श्रीगणेश हुआ। अर्थात जिनके कर (हाथ) ही अब पात्र (बर्तन ) होंगे।अपनी सम्बोधि के वर्ष में ही वैशाख शुक्ल एकादशी को महावीर ने पावा के महासेन उद्द्यान में प्रख्यात सोमिल ब्राह्मण के पुत्रों इंद्रभूति , अग्निभूति और वायुभूति को अपना प्रवचन दिया। उनकी देशना से सभी स्तब्ध रह गए। इन विद्वानों ने अपने हज़ारों शिष्यों समेत उनको अपना सद्गुरु स्वीकार किया।
अपने चुंबकीय व्यक्तित्व से महावीर ने लोगों को रूपांतरित करना प्रारम्भ किया। वे सत्य के उद्घाटन में सतत रूप से क्रियाशील हो गए। उनके अनंत शिष्य भी उनकी शिक्षाओं के प्रचार और प्रसार में जुट गए। उन्होंने णमोकार मंत्र का उद्घोष किया। ‘जैन प्राकृत’ में यह मंत्र इस प्रकार है-
‘णमो अरिहंताणं
णमो सिद्धाणं
णमो आयरियाणं
णमो उवज्झायाणं
णमो लोए सव्व साहूणं
एसोपंचणमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो
मंगला णं च सव्वेसिं, पडमम हवई मंगलं।’

अर्थात ‘अरिहंतो को नमस्कार हो।सिद्धों को नमस्कार हो।आचार्यों को नमस्कार हो।उपाध्यायों को नमस्कार हो।लोक के सर्व साधुओं को नमस्कार है।’
उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त दास प्रथा का पुरज़ोर विरोध किया।उनसे दीक्षा लेने के लिए असंख्य महिलाएं उपस्थित हुई। सबके अनुरोध पर उन्होंने ‘भिक्षुणी संघ’ की स्थापना की। उन्होंने समाज के सभी वर्गों की स्त्रियों को दीक्षा दी। इनमें राजघराने की महिलाएं भी थी और दासियाँ भी। विवाहित -अविवाहित युवतियां भी, तो गणिकाएं और वेश्याएं भी।सभी स्त्रियां भिक्षुणी संघ में दीक्षित हो जाने के उपरान्त सामाजिक दृष्टि से वंदनीय और स्वीकार्य हो जाती थी। महावीर के प्रथम भिक्षुणी संघ में छत्तीस हज़ार स्त्रियों के होने का उल्लेख मिलता है जबकि पुरुष भिक्षु उस समय सिर्फ चौदह हज़ार थे। उन्होंने उनके साथ धर्म की यात्रा पर चलने वाले लोगों को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया। सक्रिय सन्यासी भिक्षु – भिक्षुणी कहलाये जबकि अन्य वर्गों को ‘श्रावक’ ,’श्राविका’ के रूप में निश्चित किया गया। प्राथमिक संघ के समय महावीर के एक लाख उनसठ हज़ार श्रावक तथा तीन लाख अट्ठारह हज़ार श्राविकाएं थी। यह उस समय का समूचे विश्व में सबसे बड़ा धर्म संघ था। भिक्षु संघ का नेतृत्व इंद्रभूति और भिक्षुणी संघ की प्रमुख राजकुमारी चन्दन बाला थी। उन्होंने सतीप्रथा का विरोध किया। महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को बंद कराया। उन्होंने एक मात्र महिला भिक्षु ‘मल्ली’ को अत्यंत प्रतिष्ठित और सर्वप्रथम तीर्थंकर की उपाधि प्रदान की।
महावीर की मान्यता थी कि धर्म ही सबसे उत्तम मंगल है। अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है। महावीर कहते हैं -‘जो धर्मात्मा है, जिसके मन में सदा धर्म रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।’ भगवान महावीर ने अपने प्रवचनों में धर्म, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, क्षमा पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। देश के भिन्न-भिन्न भागों में घूम-घूमकर अपना पवित्र संदेश फैलाया।
जनकल्याण हेतु उन्होंने चार तीर्थों साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका की रचना की। इन सर्वोदयी तीर्थों में क्षेत्र, काल, समय या जाति की सीमाएँ नहीं थीं। भगवान महावीर का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक-सी हैं इसलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसंद हो। यही महावीर का ‘जीयो और जीने दो’ का सिद्धांत है।
ईसा पूर्व 527 और विक्रमी पूर्व 470 को कार्तिक मॉस के कृष्ण पक्ष की अमावस्या दीपावली की संध्या वेला में महावीर तन का पिंजरा धरा पर छोड़ उन्मुक्त गगन की और उड़ गए। उनकी शिक्षाएं जब तक मानव है तब तक प्रासंगिक रहेंगी।

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