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बहुत पक्का है ,कच्चे धागों का बंधन

SHABDARCHAN
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(श्रावण पूर्णिमा 20 अगस्त पर विशेष)
भारत की सांस्कृतिक विशष्टता यहाँ के पर्वों के कारण भी है। भारतीय परम्पराओं में सामाजिक जीवन दर्शन के गहरे सूत्र छिपे हैं। प्राचीन विचारकों ने जब विविध सामाजिक पर्वों के चलन को प्राथमिकता दी होगी, तो उसके पीछे इन पर्वों के मानवीय और कल्याणकारी सरोकार अवश्य रहे होंगे। श्रावण माह की पूर्णिमा को
मनाये जाने वाला ”रक्षा बंधन” एक ऐसा ही पर्व है , जिसके कच्चे धागों में बंधा स्नेह इतना पक्का है कि सदियाँ गुज़र जाने के बाद भी उसकी प्रासंगिकता अक्षुणण बनी हुई है।
भारतीय सामाजिक चिंतकों ने लगभग प्रत्येक रिश्ते के लिए किसी न किसी उत्सव की अवधारणा को बल दिया था ,कमोबेश थोड़े व्यापारिक नज़रिए के साथ, इस तरह के पर्व अब वैश्विक रूप ले रहे हैं परन्तु विशुद्ध भारतीय अंदाजों में संपन्न होने वाले पर्व अपनी एक अलग ही पहचान रखते हैं। रक्षा बंधन चूँकि श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है अतः इसे ‘सावनी’ या ‘सलूनो’ के नाम से भी जाना जाता है।समग्र अर्थों में यह त्यौहार बहन भाई के पवित्र रिश्ते का प्रतीक है। परन्तु कुछ सन्दर्भों में पत्नी द्वारा पति को राखी बाँधे जाने के उल्लेख भी मिलते हैं।
‘भविष्य पुराण’ के अनुसार एक बार देवताओं और दानवों में युद्ध शुरू हो गया ,देखते ही देखते दानव देवों पर भारी पड़ने लगे। देवराज इंद्र घबराकर गुरु ब्रहस्पति के पास पहुँचे ,इन्द्र की पत्नी यह सब देख-सुन रही थी ;उसने रेशम का एक धागा मंत्र शक्ति से अभिमंत्रित करके इंद्र की कलाई पर बांध दिया। आश्चर्यजनक ढंग से पराजय के समीप पहुँची देव सेना ने राक्षसों पर विजय प्राप्त की। देवताओं ने माना की यह विजय इंद्र के हाथ में बंधे धागे के कारण ही संभव हो सकी। वह दिन श्रावण पूर्णिमा का ही दिन था। इसके बाद अनेक प्रसंगों में एक दूसरे से रक्षा का वचन लेने हेतु रक्षा-सूत्र के बाँधने के प्रसंग दृष्टिगोचर होते हैं। दक्षिण अफ्रीका के एक कबीले टुंगेटोम्ब में आज भी पत्नियाँ अपनी सुरक्षा हेतु पतियों को राखी बाँधती हैं। अनेक भारतीय साधक कुलों में श्री गणेश और भगवान शिव को भी रक्षा सूत्र बाँधने का रिवाज़ है।
भारतीय पौराणिक सन्दर्भों में रक्षा संकल्प हेतु पवित्र सूत्र बाँधने की परम्पराएँ मिलती हैं। ‘स्कन्ध पुराण’ ‘पदम् पुराण’ और ‘श्री मद्भागवत’ के ‘वामन अवतार ‘ नामक प्रसंग में रक्षा बंधन का उल्लेख मिलता है। दानवेन्द्र राजा बलि ने विशिष्ट प्रयोजन हेतु 100 अखंड यज्ञ संपन्न करके स्वर्ग के राज्य पर अपना अधिपत्य स्थापित करना चाहा, तो इन्द्र भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे और उनसे अपनी व्यथा तथा आने वाली विपत्ति का ज़िक्र किया। कथा कहती है कि विष्णु ने धर्म की रक्षा हेतु ‘वामन अवतार’ लिया और एक ग़रीब ब्राह्मण के वेष में राजा बलि के सम्मुख जा पहुँचे। उन्होंने राजा बलि से भिक्षा में तीन पग भूमि मांगी ,गुरु के मना करने के बावजूद बलि ने उन्हें तीन पग भूमि दान देने की स्वीकृति दी। विष्णु ने एक पग में पृथ्वी मापी ,दूसरे में आकाश और तीसरे में पाताल मापकर बलि के अभिमानं का मर्दन करके उसे रसातल में भेज दिया। इस प्रकार यह पर्व ‘बलेव ‘ नाम से भी जाना जाता है। आज भी समस्त पंडित -पुरोहित यजमान को कलावा (मौली) बाँधते समय जिस मंत्र का उच्चारण करते है ,वह यह है –
‘येन बद्धो बलि: राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥’
(श्रीशुक्लयजुर्वेदीय, माध्यन्दिन वाजसनेयिनां, ब्रम्हकर्म समुच्चय पृष्ठ -295 )

‘भगवत पुराण’ में ही एक और उल्लेख मिलता है जब रसातल को उपलब्ध बलि ने अपनी साधना से भगवान विष्णु को प्रसन्न करके हर समय अपने समक्ष रहने का वचन ले लिया। कई दिन तक जब विष्णु घर नहीं लौटे तो उनकी पत्नी लक्ष्मी ने नारद जी की सलाह पर बलि को राखी बांध कर अपने पति को मुक्त किया और अपने साथ ले आईं। यथा –
‘रक्षिष्ये सर्वतोहं त्वां सानुगं सपरिच्छिदम्।
सदा सन्निहितं वीरं तत्र मां दृक्ष्यते भवान्॥’
(श्रीमद्भागवत,स्कन्ध 8,अध्याय 23,श्लोक33)

‘विष्णु पुराण’ में एक और उल्लेख मिलता है जब विष्णु ने हयग्रीव अवतार के रूप में पृथ्वी पर विचरण किया। उस दिन भी श्रावण महीने की पूर्णिमा ही थी। विष्णु इस रूप में ब्रह्मा के लिए पुनः वेदों को उपलब्ध कराया था। हयग्रीव अवतार को विद्या और बुद्धि प्रदाता माना जाता है। उनके स्वागत में ब्रह्मा ने विष्णु का रक्षा सूत्र बाँध कर अभिनन्दन किया था।

द्वापर युग में महाभारत काल में भी राखी का उल्लेख मिलता है। ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठर ने श्री कृष्ण से युद्ध भूमि में पूछा कि हम संख्या और शक्ति बल में कम होते हुए भी किस प्रकार विजय प्राप्त कर सकते हैं ? तब श्री कृष्ण ने ‘हनुमान मंत्र’ के साथ समस्त सैनिकों को परस्पर रक्षा सूत्र बाँधने का परामर्श दिया था।उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है, जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। यही नहीं अर्जुन के जिस रथ को श्री कृष्ण स्वयं हाँक रहे थे उसके ऊपर भी हनुमत ध्वजा फहरा रही थी।
महाभारत में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से अहंकारी शिशुपाल का वध किया, तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँधी थी । यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी के आकार को बढ़ाकर चुकाया।मान्यता है कि परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के सम्बन्ध में इसी घटना के बाद से प्रारम्भ हुई।

भारतीय राजपूत जब संग्राम में जाया करते थे तब उनकी पत्नियाँ उन्हें कुमकुम तिलक करने के साथ -साथ रेशमी धागा बांधकर उनके सर्वत्र मंगल और अपने अखंड सुहाग की कामना किया करती थी।उनका विश्वास था कि इस पवित्र धागे की शक्ति उन्हें हर संकट और आफत से सुरक्षित बचाकर वापस ले आयेगी ,इतिहास साक्षी है अनेक बार ऐसा हुआ भी ! इस पर्व के साथ एक और कहानी अत्यंत प्रसिद्द है। सुना जाता है कि मेवाड़ की क्षत्राणी रानी कर्मावती को एक आक्रान्ता मुस्लिम बहादुरशाह ने हमले की चुनौती दी। रानी लड़ने में असमर्थ थी अतः उसने मुग़ल शासक हुमायूँ को एक पत्र लिखकर अपना धर्मभाई मनोनीत किया। उसने पत्र के साथ राखी भेजी और हुमायूँ से अपने मान-सम्मान की रक्षा करने की प्रार्थना की। मुस्लिम होते हुए भी हुमायूँ ने अपने धर्म भाई का फ़र्ज़ अदा किया। उसने राखी की लाज़ रखी और मेवाड़ भूमि पहुँचकर कर्मावती की ओर से रण किया। हुमायूँ ने बहादुरशाह की फौज़ को पराजित करके खेदेड़ दिया।

सभी विदेशी आक्रान्ता इस बात से भिज्ञ रहे हैं कि राखी हिन्दुओं का एक पवित्र त्यौहार है ,चाहे कुछ भी हो वे राखी के वचन की रक्षा करते हैं। कभी कभी कुछ अवसर वादी हमलावरों ने इस भावना का फायदा भी उठाया है। एक प्रसंग में सिकंदर पर जब हिन्दू सम्राट पुरूवास भारी पड़ रहा था तब सिकंदर के धर्म गुरु ड़ायोजनीज़ ने सिकंदर की पत्नी को मशवरा दिया की वो रक्षाबंधन के दिन पुरूवास को जाकर राखी बाँध आये और साथ ही उससे सिकंदर के प्राण रणभूमि में ना लेने का वचन भी ले ले। सिकंदर की पत्नी ने ऐसा ही किया पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बँधी राखी और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकन्दर को जीवन-दान दिया।
आज के बदलते समीकरणों में भी यह त्यौहार भाई बहन के बीच अटूट स्नेह का एक संकल्प है। जिसकी प्रतीक्षा बहनें वर्ष पर्यंत करती हैं। भारत के उत्तराँचल प्रान्त में ‘श्रावणी’ के नाम से प्रसिद्द इस पर्व के दिन युजुर्वेदी दिव्जों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन ,स्नान ,ध्यान ,ऋषि तर्पण आदि की निवृत्ति के उपरान्त नवीन यज्ञोपवीत धारण करने की प्रथा है। वृत्तिवान पुरोहित यजमानों को यज्ञोपवीत और रक्षासूत्र देकर दक्षिणा ग्रहण करते हैं। भगवान शिव को समर्पित अमरनाथ गुफा की पवित्र यात्रा गुरु पूर्णिमा से प्रारंभ होकर श्रावण पूर्णिमा को संपन्न होती है। मान्यता है कि इस दिन बर्फानी बाबा अपने सर्वाधिक विशाल स्वरुप में होते हैं। इस दिन वहां वार्षिक मेले की भी परंपरा है।
राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बाँधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुँदना लगा होता है। यह केवल भगवान को ही बाँधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है। जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पदमसर और मिनकानाडी पर गोबर , मिटटी और भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकर्त्ता अरुंधती,गणपति,दुर्गा ,गोभिला तथा सप्तऋषियों के दर्भ के चट (पूजास्थल) बनाकर उनकी मन्त्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं। उनका तर्पण कर पित्रऋण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनायी जाती है। राखी को कच्चे दूध से अभिमन्त्रित करते हैं और इसके बाद ही भोजन करने का प्रावधान है।
महाराष्ट्र में भी लोग इसे ‘नारियल पूर्णिमा’ के रूप में मनाते हैं। बड़ी संख्या में भक्त सिद्धि विनायक मंदिर में श्री गणपति को अपनी रक्षा हेतु मौली अर्पित करते हैं। नदियों और समुद्र के किनारे जाकर लोग जनेऊ बदलते हैं और नारियल प्रवाह करते हैं। तमिलनाडु।,केरल ,उड़ीसा और कर्नाटक के ब्राह्मण इस पर्व को ‘अवनि अवत्तम ” के रूप में मनाते हैं। यजुर्वेदीय साधक इसी दिन से 6 महीने के लिए वेद अध्ययन प्रारंभ करते हैं। गुरु परम्परा को इस पर्व को ‘उपक्रमण’ के नाम से भी संबोधित किया गया है।;जिसका शाब्दिक अभिप्रायः है ‘एक नयी शुरुआत ‘!

इस पर्व के गर्भ में कहीं न कहीं स्त्रीत्व और शुचिता की रक्षा -सुरक्षा के भाव निहित हैं। इस पर्व को बंधन न मान कर रक्षा संकल्प मानना चाहिए। भारत में जिन भी कलाईयों पर यह सूत्र बंधता है उन्हें किसी भी रूप में नारीत्व के दर्प की रक्षा करनी चाहिए। भ्रूण हत्या और स्त्री हिंसा में आतुर मन इस पर्व की मूल भावना के सर्वथा विपरीत है, हमें यह भी समझने की ज़रुरत है। तभी वास्तिक रक्षा बंधन और रक्षा संकल्प को मनाया जाना सार्थक हो सकेगा, अस्तु !

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