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ये धरा तुम्हें पुकार रही है तथागत

SHABDARCHAN
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जयंती बुद्ध पूर्णिमा – 4 मई पर विशेष
परमात्मा जब अपने मन की पूरी नहीं कर पाया तो उसने मानवीय स्वरूप में अवतरित हो सृष्टि को उबारने के प्रयास किये।बुद्ध समूची मनुष्यता के लिए वरदान थे। वे भारतीय अस्मिता और गौरव के प्रतीक हैं। वे भारत के बड़े बेटे हैं जिनकी देशना की छाँव में सदियों से धार्मिक मूल्य पुष्पित-पल्लवित होते रहे हैं। उनकी दृष्टि कालजयी है; जब तक मानव का अस्तित्व है तब तक उनकी शिक्षाएं अमर रहेंगी।बुद्ध अध्यात्म की गीता पर स्वर्ण हस्ताक्षर हैं। वे मानवीय मूल्यों के जीते जागते वेद हैं। बुद्ध धर्म की झील में खिले ऐसे कमल के पुष्प हैं जिनके ज्ञान की सुरभि में विश्व सभ्यता का वर्तुल नए-नए रंग बदलता चला गया है। वे ध्यान के गौरी शंकर हैं और प्रेम के सागर। बुद्ध करुणा के दरिया हैं और मैत्री की गंगोत्री।हम अनुग्रह से भरे हैं क्योंकि हमारे बुद्ध समूची दुनिया के अपने हैं। हम इसलिए भी अनुगृहीत हैं क्योंकि हम उस देश के वासी हैं जहाँ बुद्ध विचरे थे।
शाक्य वंश के सम्राट शुद्धोधन और कोली वंश की राजकुमारी माया देवी के घर 483 ईसा पूर्व एक दिया प्रज्जवलित हुआ। बालक का नाम रखा गया -सिद्धार्थ। कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी नामक स्थान पर यह दिव्य संयोग उदित हुआ। अब यह स्थान नेपाल में है। सिद्धार्थ के जन्म से सातवें दिन उनकी माता माया देवी का निधन हो गया ,उनका पालन पोषण शुद्धोधन की दूसरी पत्नी और मायादेवी की छोटी बहन रानी प्रज्ञावती ने किया। सम्राट के बचपन के मित्र और तब के महान ज्योतिषज्ञ स्वामी असिता ने भविष्यवाणी कि -‘यह बालक या तो महानतम सम्राट बनेगा या अभूतपूर्व सन्यासी।’ राजाओं की दृष्टि और रूचि अपने साम्राज्यों के विस्तार में ही रहा करती है शुद्धोधन भी इसके अपवाद न थे। उनके माथे पर लकीरें खिंच आई। उन्हें ख़ुशी थी इस बात की कि चलो पुत्र विशाल साम्राज्य का स्वामी बनेगा लेकिन चिंता थी दूसरे वक्तव्य की यदि सन्यासी हो गया तो ?
सिद्धार्थ अपनी ही दुनिया में विचरते रहते। वे जीवन और मृत्यु के प्रश्नों पर विचारमग्न रहते। वे सोचते जब सब एक दिन मिट ही जायेगा तो इतना बवाल किस लिए ? करुणा, मैत्री और प्रेम के बीजों ने अंकुरित होना प्रारम्भ कर दिया था।वे वैराग्य की बातें करते। समय और नियति किसी के बांधें बंधे है भला !दिमाग राजमार्ग का हो या राजभवन का बहुत सी संज्ञाओं में प्रायः एक समान ही सोचता है। स्त्री को माना जाता है कि वह एक बंधन का काम करेगी। राजकुमारी यशोधरा से बुद्ध का विवाह कर दिया गया।सम्राट पिता को जो भी उपाय बुद्ध को बांधें रखने में सहायक प्रतीत हुए उन्होंने किये। उन्हें किसी भी तरह का कष्ट न हो ,इसका विशेष ध्यान रखा जाने लगा। उनकी सेवा में दुनिया की सुन्दरतम स्त्रियों की कतार लगा दी गयी। लेकिन जीवन का वर्तुल अलग ही ढंग से काम करता है। प्रायः अतियाँ मुक्तिपथ सिद्ध होती हैं। सिद्धार्थ इस सब से ऊब गए और सत्य की लपट को आत्मसात करने को आतुर हो गए। एक सुनसान और अंधियारी रात में अपनी पत्नी और बेटे राहुल को त्यागकर अपने प्रिय अश्व कंतक और सेवक चन्ना के साथ अज्ञात पथ पर प्रशस्त हो गए। राज्य की सीमा पर जाकर उन्होंने अपनी तलवार से सर के लम्बे बाल काटकर जलप्रवाह किये, अपने घोड़े और सेवक को राजमहल लौटने का निवेदन किया।
बहुमूल्य रत्नजड़ित राजसी पोशाक एक भिखारी को देकर उसका साधारण सा चीवर पहना और जंगलों की खाक छाननी शुरू की। वे सत्य के मार्ग पर भटकते रहे। असंख्य साधुओं और संतों मुनियों से उनका मिलन हुआ लेकिन भीतर की उत्कंठा जस की तस बनी रही। उन्होंने सभी गुरुओं को छका दिया। जिसने जो भी कहा सब कर दिखाया। महीनों एक दिन में एक चावल का दाना खाकर ज़िंदा रहे।उनका शरीर सूखकर काँटा हो गया।उन्होंने हठयोग की पराकाष्ठाओं को पार किया। लगभग सात वर्ष के घोर तप ,साधना और त्याग के बाद उनका धैर्य जवाब दे गया। एक रोज वे यह संकल्प करके बैठे कि अब तभी उठेंगे जब अस्तित्व के समस्त रहस्यों को जान चुके होंगे। बिना कुछ खाये -पिए बिना कहीं आये जाये सिद्धार्थ मूर्तिवत होकर एक वृक्ष के नीचे बैठे रहे।तीन दिन-रात बीत गये परमात्मा का दिल पसीज गया ज़ोरदार बारिश हुई सिद्धार्थ का तन मन और आत्मा सब परमात्मा के प्रसाद से भीग गए थे। उन्होंने सम्बोधि अर्जित कर ली थी। मानवीय अंश का परमात्मा की सर्वोच्च सत्ता से साक्षात्कार हो चुका था। अब वे दो न थे एक ही था या तो सिद्धार्थ कहो या फिर सर्वेश्वर। मानो समय ठहर सा गया था। बिहार प्रान्त के बोधगया में आज भी वह वृक्ष खड़ा है; जो इस महान क्षण का साक्षी बना। पड़ौस में रहने वाली एक धनाढ्य युवती सुजाता उस वृक्ष की पूजा के लिए आया करती थी, उस दिन जब वह वहां पहुँची तो निशक्त सिद्धार्थ को देखकर उसने थोड़ी सी खीर उन्हें खाने को दी। सिद्धार्थ ने आँखें खोली और खीर ग्रहण की। सुजाता अपलक उन्हें निहार रही थी। उसने ही उन्हें सर्वप्रथम ‘बुद्ध’ कहकर सम्बोधित किया।सिद्धार्थ को यह नाम पसंद आया और उसके बाद जब भी किसी से उनका परिचय हुआ उन्होंने कहा -‘मैं बुद्ध।’
सात वर्ष की साधना रंग लायी थी। परम चेतना का विस्फोट हो चुका था।अस्तित्व के समस्त रहस्य सुलझ गए थे।ज्योति परम प्रकाश से एकाकार हो गयी थी। बुद्ध ज़रा-जीर्ण समाज के चिकित्सक बनकर निकल पड़े। उन्होंने सारनाथ में अपने पूर्व परिचित पाँच सन्यासियों को अपना पहला धार्मिक उपदेश दिया। हमारे समाज में इससे पूर्व पंच प्रथा चलन में नहीं थी। यही से ‘पंच परंपरा’ की नींव पड़ी। यानि जिस सत्य के साक्षी पाँच लोग हों, वह स्वीकार्य है।
बुद्ध सम्राटों के सम्राट थे जिन छोटे-मोटे राज्यों को जीतने और बचाये रखने के लिए राजा-महाराजा मरे खपे जा रहे थे, ऐसे ही एक विशाल राज्य को बुद्ध लात मार आये थे। जो भी उनसे मिला उनके आलौकिक व्यक्तित्व की आभा से अभिभूत हो उठा। बड़े से बड़े सम्राटों में उनका शिष्य बनने की होड़ लग गयी।राजगृह के सम्राट बिम्बिसार ने उन्हें अपना गुरु स्वीकार किया।सम्राट ने बुद्ध को भोजन के लिए आमंत्रित किया। बुद्ध अपने हज़ारों शिष्यों के साथ राजमहल पधारे। वहां इतने लोगों के बैठने की जगह न थी। उसी क्षण बिम्बिसार ने विशाल वेणुवन बुद्ध को दान किया। इसके बाद की सभी संध्या सभाएं और प्रश्नोत्तर वार्ताएं वेणुवन में संपन्न होने लगीं। वेणुवन में उस समय 10 हज़ार सन्यासी एक साथ बैठकर ध्यान कर सकते थे।
सम्राट सारिपुत्त भी उनके शिष्य हो गए थे। उस समय के प्रसिद्द सेठ सुदत्त (अनाथ पिण्डक) ने अपने गुरु बुद्ध को एक सुन्दर विहार उपहार में देना चाहा। यह विहार तत्कालीन सम्राट प्रसेनजित के 20 वर्षीय युवराज पुत्र जेत का था। जेत ने सुदत्त से कहा मैं यह उपवन इसी शर्त पर बेच सकता हूँ यदि आप उपवन की भूमि को स्वर्ण मुद्राओं से पाट दें , जहाँ तक स्वर्ण मुद्राएं बिछा दोगे वहां तक की भूमि के स्वामी तुम !’ सुदत्त को बात लग गयी उसने कहा -‘मुझे शर्त स्वीकार है।’ राजकुमार सकपका गया उसे इस उत्तर की उम्मीद नहीं थी। उसने कहा मैं तो मज़ाक कर रहा था ,सुदत्त का तर्क था सम्राटों को मज़ाक का अधिकार नहीं होता वे फैसले करते हैं ,आप अपनी ज़बान से मुकर नहीं सकते।’ अगले ही दिन से कईं दिनों तक जेतवन को स्वर्णमुद्राओं से पाटने का काम चलता रहा। टनों सोने से भूमि पाट दी गयी ; जहाँ जहाँ तक सोना बिछा था वह भूमि सुदत्त की हो चुकी थी।कईं एकड़ भूमि खरीद ली गयी थी। इतिहास साक्षी है कि किसी शिष्य द्वारा अपने गुरु को भेंट की गयी यह सर्वाधिक मूल्यवान भेंट थी। इसे फिर कभी भी, कोई भी, कहीं भी दोहरा नहीं पाया।
बुद्ध ने सर्वाधिक हृदय वीणाओं के तार झंकृत किये। जो भी उनसे मिला उन्हीं का हो गया। उस समय के सर्वाधिक ख्यातिलब्ध धर्म गुरुओं को भी बुद्ध की देशना ने रूपांतरित कर दिया था। महाकाश्यप, कोडिंन्न, मौद्गल्यायन, उपाली आदि अपने हज़ारों अनुयाइयों के साथ बुद्ध की शरण में थे। उनके चचेरे भाई आनंद और देवदत्त ने भी उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया था। बुद्ध दुनिया के पहले ऐसे गुरु थे जिन्हें गुरुओं ने भी अपना गुरु स्वीकारा था। श्रावस्ती के उनके एक शिष्य अनिरुद्ध ने बुद्ध को नाम दिया -‘तथागत’ जिसका अभिप्राय है -‘जो अजर-अमर है न कहीं जाता है और न ही कहीं से आता है।’

बुद्ध सात वर्ष बाद एक दिन राजमहल लौटे।उनकी पत्नी यशोधरा ने कहा- ‘जो तुमने घर से भागकर खोजा, क्या घर में नहीं मिल सकता था ?’ बुद्ध मुस्कराए और मौन रहे।जब उनकी पत्नी ने कहा –‘ अपने एक मात्र पुत्र को देने के लिए आपके पास क्या है ?’ तो बुद्ध बोले-‘संन्यास’!’ इतिहास गवाह है कि पिता द्वारा पुत्र को संन्यास की वसीयत दिए जाने की यह पहली घटना थी।अगले ही रोज़ सर घुटाये राहुल अपने पिता बुद्ध के काफिले में आगे-आगे चल रहा था। 51 वर्ष की अवस्था में राहुल का देहावसान हो गया। राहुल पूरे जीवन बौद्धभिक्षु रहा और धर्म का प्रचार करता रहा।
बुद्ध ने स्त्रियों के लिए सबसे पहले संन्यास का दरवाज़ा खोला। नगरवधू आम्रपाली ने उन्हें अपना गुरु स्वीकार किया और सन्यास की दीक्षा ली।बुद्ध के प्रभाव से विस्मित उनकी माता रानी प्रज्ञावती और उनके छह महीने बाद पत्नी यशोधरा ने भी संन्यास ले लिया था।बुद्ध द्वारा दीक्षित स्त्री सन्यासियों की संख्या हज़ारों में थी। भिक्षुणी खेमा,प्रज्ञाधारा, धर्माधीना, उत्पलवर्णा, विशाखा और पात्रचारा के ज्ञान की गूँज चहुँ ओर थी। राजा हो या रंक, साधु हो या सन्यासी, सुंदरी हो या योद्धा सभी बुद्ध से अतिशय प्रभावित थे। यहाँ तक की उस समय का दुर्दांत डाकू अंगुलिमाल जिसने 99 लोगों की गर्दन काटकर उनकी अँगुलियों की माला गले में पहन रखी थी , भी बुद्ध के समक्ष नतमस्तक हो गया और शेष जीवन अहिंसक रहकर व्यतीत किया।
बुद्ध ने ‘पंचशील’ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। ये हैं – अहिंसा, चोरी न करना, वासना से मुक्ति, झूठ का परित्याग, और व्यसनों से बचाव।उनकी देशना की धारा में सभी प्रश्न बह जाते हैं। वे परम परमात्मा के प्रवक्ता हैं लेकिन उसके नाम पर किये जा रहे पाखण्ड के घोर विरोधी। वे करुणा और प्रेम के संदेशवाहक हैं। उनकी शिक्षा वर्तमान में साक्षी भाव का जागरण है। बुद्ध कहते हैं बैर नर्क द्वार है। वे छुआछूत के विरोधी हैं और मनुष्यता में विश्वास करते हैं। उनकी मान्यता है कि अतीत का पीछा न करो। भविष्य अभी आया ही नहीं। वर्तमान तुम्हारे हाथ में है जिसकी तरफ से तुम पीठ फेरे खड़े हो।लगभग 80 वर्ष की अवस्था में अपने ही एक अनुचर कुंडा लुहार के यहाँ विषाक्त भोजन कर लेने से बीमार बुद्ध शरीर के जंजाल से मुक्त हो गए।
हजारों वर्ष बीत गए आज भी अज्ञान के क्षितिज पर बुद्ध अकेले प्रज्ञा के धूमकेतु हैं। मानवता अपने ही बने जाल में उलझी खड़ी है, हमने पंछियों को उड़ा दिया, पशुओं को खदेड़ दिया, रिश्तों की हांड़ी में विष पका बैठे, स्वार्थ की पताकाएँ फहराकर हम सबको जीतने तो निकले मगर खुद से हार गए, धरती को खोद डाला,आकाश को बेध दिया, हवा बिगाड़ ली, जल प्रदूषित कर दिया। इंसानियत की आग पर बर्फ रख दी और धर्म के अलाव पर सब कुछ जला डाला। धरती पर आड़ी-टेढ़ी रेखायें खींचकर अपने -अपने देशों के झंडे फहरा दिए। इस सबसे दूर, बहुत दूर खड़ी असहाय धरा तुम्हें पुकार रही है तथागत आओ अभी भी तुम्हारी ज़रूरत है !

(अपने पूरे जीवन काल में जहाँ-जहाँ बुद्ध चले, उन सभी स्थलों का लेखक ने स्वयं अनुभ्रमण किया है)

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