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ढ़ाई आखर प्रेम का

SHABDARCHAN
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बहुत बार सोचा प्रेम पर कुछ लिखूं ,लेकिन तत्क्षण ये ख्याल आता रहा कि प्रेम तो करने की बात है लिखने की नहीं ! आज जब देखता हूँ कि प्रेम अपनी दिव्यता और नैसर्गिकता के पायदान से कईं सीढ़ी नीचे उतरकर बाज़ारवाद की मेज पर सज रहा है ;तब कुछ बातें आपसे साँझा करने का मन हुआ। आज पूरा विश्व कथित तौर पर प्रेम दिवस मनाने में व्यस्त है लेकिन मैं कहना चाहूँगा कि प्रेम और स्नेह के मूल्यवान सन्देश को इस धरती पर यदि सर्वप्रथम कहीं गाया गया, तो वह सिर्फ भारत ही की भूमि थी। भारत की मिट्टी में एक अतुलनीयता की गंध है। अतुलनीयता भी ऐसी जिसे कालखंड की कोई भी कसौटी जाँच ना पाये। पूर्व से जो भी चीज़ पश्चिम पहुँची, लौटने पर देखा तो प्रायः उसका व्यवसायीकरण हो चुका था।यहाँ बात मूल्यों से लेकर मनुष्यों और प्रेम से लेकर पदार्थ तक सब जगह लागू होती है। दुनिया के अधिकांश देश जिस प्रेम को एक दिवस मान कर मना लेने से निवृत्त हो जाते हैं ,वही प्रेम भारत की संस्कृति ,भारत की सोच ,भारतीय आध्यात्मिकता का एक ऐसा ‘प्राणतत्त्व’ है, जिसकी अनुभूति पर बाद में पाकिस्तान में जा बसने वाले शायर इकबाल को भी लिखना पड़ा ‘ सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा !’
भारत अकेला ऐसा देश है जिसने अपने लुटेरों अपने नागरिकों के हत्यारों और हमलावरों को भी न सिर्फ प्यार से देखा अपितु उन्हें अपनाया भी !भारत पूरी दुनिया में अकेला ऐसा देश भी है, जिसने अपनी सर्वाधिक सामर्थ्य के दिनों में भी स्वार्थवश कभी भी किसी भी राष्ट्र पर पहले हमला नहीं किया ! यह प्रेम और दया के उस भाव की मिसाल है जहाँ भगवान बुद्ध कहते हैं ‘बैर’ और ‘हिंसा’ नर्क का द्वार है।
कुछ वर्षों से समूची दुनिया में 14 फरवरी को ‘वेलेंटाइन डे’ मनाने की एक परम्परा शुरू हुई। कमोबेश यह पर्व आज पूरी दुनिया में सर्वाधिक उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता है। जिन रेस्त्राओं और होटल्स में कभी कोई नहीं जाता, वे भी इस दिन खासी चहल-पहल वाले हो जाते हैं।समूचे विश्व में इस अकेले दिन पर हज़ारों करोड़ रूपये का कारोबार होता है। अमेरिका की ग्रीटिंग कार्ड एसोसिएशन का आँकड़ा है कि प्रति वर्ष इस दिन एक अरब से भी अधिक ग्रीटिंग कार्ड्स खरीदे और बेचे जाते हैं ;लेकिन जिन संत वेलेंटाइन की वज़ह से यह पर्व प्रारम्भ हुआ उनका मूल सन्देश और भाव कहीं पीछे छूट जाता है ?
ईसा पश्चात सन 269 में रोम के कैथोलिक चर्च के पादरी संत वेलेंटाइन को आज ही के दिन मृत्युदंड दिया गया था। उनका अपराध बस इतना था कि वे समूचे रोम को प्रेम का सन्देश दे रहे थे। वे ऐसे प्रेमी जोड़ों की गुपचुप शादी करा देते थे, जिनके पक्ष में उनके परिजन या कानून नहीं होता था। उनकी यह बात तत्कालीन सम्राट क्लोडियस को नागवार गुजरी फलस्वरूप उन्हें पहले बंदी बनाकर जेल में रखा गया, जहाँ बाद में उन्हें मारने का आदेश दिया गया। संत वेलेंटाइन पर यह भी आरोप था कि वे सैनिकों, जिन्हें तब शादी की मनाही होती थी, उनकी भी शादियाँ करा देते थे। वेलेंटाइन हिंसा और नफ़रत के विरुद्ध थे; उनकी मान्यता थी कि जब दुनिया के अधिकांश काम प्रेम और भाईचारे से निपटाये जा सकते हैं ,तब व्यर्थ खून-खराबे का क्या औचित्य है ?
संयोगवश जिस महीने में संत वेलेंटाइन को मृत्युदंड मिला, उसी महीने में प्राचीन काल से भारत में वसंत का आगमन होता रहा है। वसंत को भारतीय परम्परा और संस्कृति में प्रणय का मौसम कहा गया है। वसंत की व्याख्या और उसकी रूमानियत का हमारे असंख्य ग्रंथों में बखूबी वर्णन किया गया है।भारतीय पर्व परम्परा में ‘मदनोत्सव’ काम और प्रेम का प्रतीक है। वसंत पंचमी से लेकर होली तक के काल को ‘रति’ और ‘कामदेव’ का समय कहा गया है। प्रेम का एक ऐसा समय जब ऋतु का प्रभाव मानवीय मन को सर्वाधिक स्पंदित करता है।मानो समूची प्रकृति एकलय हो गई हो।भारतीय दर्शन की चिंतनधारा में प्रेम और स्नेह कोई एक दिन की बात नहीं है अपितु यह तो एक ऐसी अटूट भाव श्रृंखला जो अहर्निश बहती रहती है ;प्रतिपल जीवंत बनी रहती है।
भारत के जीवन मूल्यों में प्रेम को पश्चिम जितना संकीर्ण कभी भी नहीं माना गया। यहाँ की आबो-हवा में प्रेम का यह एक ऐसा जादू है जिससे कोई भी अछूता ना रह सका। जीसस क्राइस्ट का अपने जीवन काल में तीन वर्ष भारत में प्रवास का उल्लेख मिलता है। उनके प्राथमिक 12 शिष्यों में से एक मैरी मेगड़लीन ने जीसस से वापसी पर पूछा -‘आपको भारत में क्या अच्छा लगा ?’ तब जीसस का जवाब सुनने योग्य है ;वे कहते हैं- ‘वहाँ के लोगों का प्रेमभाव ! भारत के लोग हर चीज़ को भगवान मानकर पूजते हैं; मिटटी और पत्थर तक को !’

यह अलग बात है कि हर युग और काल खंड में प्रेम के प्रचारकों को निर्मम समाज ने मौत के घाट उतारा है, जीसस भी इससे बच नहीं पाये। सुकरात को ज़हर का प्याला , मंसूर की हत्या ,सरमद का सर कलम करना, मीरा का विषपान,सोहनी की जलसमाधि,रोमियो को देश निकाला, काला चाँद का धर्म परिवर्तन ,मजनूं को सार्वजनिक दण्ड , प्रेम के अतिरेक से उपजे पुरस्कार हैं। यह सूची बहुत लंबी है परन्तु इन सबका एक ही गुनाह था; प्रेमभाव को प्रतिष्ठित करना !मुग़ल बादशाह शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज के प्रेम प्रतीक ताजमहल का निर्माण कराया लेकिन उसकी ही 14 संतानों में से एक औरंगजेब ने अपने पिता को कैद करके जेल में डाल दिया, जहाँ शाहजहां का प्राणांत हुआ।

आज के बदलते हुए दौर में हर चीज़ बदल रही है। प्रेम के मायने भी बदल रहे हैं। नई पीढ़ी में इस भाव को लेकर रोमांच है। उनका प्रेम एक रेडीमेड भाव है, जिसके पात्र प्रायः देश ,काल और परिस्थिति के मुताबिक बदलते रह सकते हैं। बहुत से लोगों की मान्यता प्रेम को वासना के रूप में देखती है। वासना या वासना पूर्ति के एक माध्यम के रूप में !वासना का अभिप्रायः मात्र देह तक सीमित नहीं है यहाँ विषयों और स्वार्थों की प्रतिपूर्ति भी अनेक अवसरों पर प्रेम का स्वाँग भरती दिखाई देती है। इस तात्कालिक प्रेम में नेह के धागे एकदम कच्चे हैं ;जो कभी भी और कहीं भी छीज सकते हैं।यह रहीम की उस विचारधारा के एकदम विपरीत है जिसमें वे कहते हैं –
‘रूठे सुजन मनाइये, जो रूठें सौ बार
रहिमन फिर -फिर पोइए ,टूटे मुक्ताहार।’

यहाँ अब कोई प्रेम को जीने की जीवटता से बचना चाहता है। याद रखिये वासना का दायरा अत्यंत संकीर्ण है जबकि प्रेम का अतिशय व्यापक। प्रेम किसी से भी हो सकता है ,माँ बहन, बेटी,प्रकृति,विचार ,संस्कृति ,सोच आदि आदि लेकिन वासना सिर्फ वहीँ होती है, जहाँ उसके गहरे निहितार्थ विद्यमान होते हैं। तभी तो कबीर को लिखना पड़ा –
‘पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ ,पण्डित भया ना कोय
ढाई आखर प्रेम का ,पढ़े सो पण्डित होय। ‘

माफ़ कीजिये ! प्रेम कोई करने की बात नहीं है,यह हो जाने जैसा भाव है।’प्रेममय’ होना। जो प्रेममय है ,उससे कुछ भी अशुभ नहीं हो सकता ,कुछ भी अप्रिय नहीं घट सकता !ऐसा व्यक्ति मन और चित्त की अवस्थाओं से परे मानवीय चेतना का श्रेष्ठ उदाहरण होता है। एक ऐसा शांत और सम्बुद्ध व्यक्तित्व जो अपने शत्रु के प्रति भी दया ,करुणा और नेह के भावों से परिपूरित रहता है। ऐसा व्यक्ति ब्रह्म की समस्त सृष्टि से प्रेमपूर्ण होता है। उसे रेत के प्रत्येक कण में प्रेम की झलक दीखती है। वह ईश्वरीय सत्ता के कण -कण से प्रेम करता है। प्रत्येक फूल ,पत्ती और वृक्ष में उसे ईश्वरीय कृति का एहसास होता है। सूर्य से उदित प्रत्येक रश्मि और चन्द्रमा से विस्तारित होती सुमधुर चाँदनी में उसे सृजक के प्रति अहोभाव की संवेदनाएँ स्फुरित करती हैं। हर दिशा से आने वाली वायु के झोंकें उसके लिए प्रेम और सौहार्द की सूचनाएँ लाते हैं। आनंद और संतोष के शिखर पर प्रसन्नचित्त ऐसा मनुष्य समस्त विश्व के प्रति अनुगृह के भाव से भरा होता है। साधुवाद के वेग से आपूरित होता है। वह पूरे विश्व का आलिंगन कर लेना चाहता है और परस्पर पूरा अस्तित्व भी उसे अहोभाव से स्वीकृत करना चाहता है ,अपनाना चाहता है। ऐसी अवस्था में मनुष्य वेद के उस वचन का साक्षी हो जाता है ;जब ऋषि सर्वत्र उसी सर्वशक्तिमान परमात्मा के होने की पुष्टि करता है –
ईशावास्यमिदं सर्वं यतकिञ्चयम् जगत्याम जगत। (ऋग्वेद )
अर्थात ईश्वर इस जग के कण-कण में विद्यमान हैं।

वस्तुतः प्रेम एक अकेला ऐसा है जिसे कभी भी पूरा नहीं किया जा सकता है। जितना करो और बढ़ता है। जितना रोककर रखो उतना घटता है। प्रेम युद्ध में अजेय है। अमीर खुसरो को 800 साल पहले कहना पड़ा –
‘खुसरो दरिया प्रेम का ,उल्टी वा की धार
जो उतरा सो डूब गया ,जो डूबा सो पार। ‘
प्रेम की नदी की बात ही निराली है। जो इससे पार उतर जाता है ,वह वास्तव में डूब जाता है और जो प्रेम में डूबता है ,उसकी नय्या पार लग जाती है। ‘प्रेम’ में जो है, वो ‘प्रेममय’ है। जो ‘वासना’ में है, उसका निकट वास नहीं है।यह गूंगे का गुड है ,यह अँधे की अनुभूति है,यह दीवानों का दर्द है। मीठा दर्द ;तभी तो मीरा कहती है –
‘हे री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाणे कोय !’
प्रेम की अनुभूति अवसरवादिता नहीं है ,न हीं ये लाभ -हानि का सौदा है। यह साथ है तो पूरा वर्ना नहीं। इसे किश्तों में नहीं बांटा जा सकता। इसके कोई निहितार्थ नहीं है। या तो प्रेम होता है या फिर नहीं होता। इसमें प्रतिशतता की कोई न तो गुंजाइश ही है और न ज़रूरत ! ये दिल मिले का मेला है, वर्ना हर कोई अकेला है।
तभी तो मधूसूदन हों या रघुपति राम हर बार वे राज -पाट के सुखों को तज ,सत्य के साथ हो लेते हैं –
‘सबसे ऊँची प्रेम सगाई
दुर्योधन की मेवा त्यागी
साग विदुर घर खाई
झूठे फल सबरी के खाये
बहुविधि प्रेम लगाई
प्रेम के बस अर्जुन रथ हाँकयो
भूल गये ठकुराई !’
जो लोग महंगे ग्रीटिंग कार्ड्स नहीं खरीद सकते क्या वो प्रेम नहीं करते !जो पति अपनी पत्नियों को महंगे उपहार या गहने नहीं बनवा सकते, क्या वो प्रेम नहीं करते ?जिनके पिता अपने बच्चों को ऊचें मँहगे या विदेशी स्कूलों में नहीं पढ़ा पाते, क्या वो अपने बच्चों से प्रेम नहीं करते ?जो बच्चे विदेशों में जा बसे और वहीँ के होकर रह गए ,क्या उन्हें अपने परिवार अपने वतन से प्रेम नहीं है ? मैं कारण गिनाता जाउंगा और आप सोचते जाईये ,ये सिलसिला कहीं नहीं थमेगा ! हमें देश पर शहीद होने वाले ऐसे जवानों का प्रेम भी रोमांचित करता है, जो अपने बीवी-बच्चों से दूर राष्ट्र प्रेम के लिए हँसते हँसते अपने प्राण न्यौछावर कर देते हैं।
असल में प्रेम एक अनुभूति है ,एक वजह जो अपना वज़ूद तलाशती है ,और जिसकी अपनी कोई वज़ह नहीं होती। हमारा अपना जन्म; परमात्मा का हमारे प्रति प्रेम का अभ्युदय है। हमसे प्रेम के कारण ही प्रभु ने हमारे लिए उपयोगी सभी चीज़ों को हमारे लिए प्रस्तुत किया। समग्र अस्तित्व के बिना हम स्वयं अधूरे हैं। सभी के प्रति आभार प्रेम और धन्यवाद से भरा चित्त ही वास्तविक सन्दर्भों में प्रेम का अधिकारी है।तब ना प्रेम मांगने की ज़रूरत है और ना प्रेम देने की वह घड़ी है ‘प्रेममय’ होने की।

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