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दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (भाग 3)

SUBODHA
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दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (भाग 3)

दोष-दर्शन की प्रक्रिया जोर पकड़ ही चुकी थी, उसकी सखी-सहेली झल्लाहट, खीझ, कुढ़न, कुण्ठा, अरुचि आदि सब साथ ही लगी हुई थीं। निदान घर आकर भोजन अच्छा न लगा पत्नी निहायत बेसऊर दिखाई देने लगी। बच्चे यदि सोते मिले तो नालायक हैं। शाम से ही सो जाते हैं। और यदि जगते मिले तो लापरवाह और तन्दुरुस्ती का ध्यान न रखने वाले बन गये। तात्पर्य यह कि उस दिन जहाँ अन्य सब लोग अधिक-से-अधिक प्रसन्नता के अधिकारी बने वहाँ दोषदर्शी के लिये हर बात खेदजनक और दुःखदायी बन गई।

किसी मित्र सम्बन्धी अथवा आत्मीयजन ने मानिये जन्म-दिन अथवा किसी अन्य शुभ अवसर पर अपनी योग्यता एवं समाज के अनुसार कोई उपहार दिया अथवा भेजा। कोई भी व्यक्ति इस सम्मान और स्नेह से पुलकित हो उठता और आभार भरा धन्यवाद देते-देते न अघाता। किन्तु दोषदर्शी तो अपने रोग से मजबूर ही रहता है। यद्यपि वह आभार एवं धन्यवाद न प्रकट करने की असभ्यता नहीं करता तथापि और कुछ नहीं उसमें इतना ही शामिल कर देता कि आपने बेकार यह चीज भेजी। यह तो मेरे पास पहले से ही थी और मुझे ऐसा रंग यह डिजाइन पसन्द नहीं है। यह रंग और प्रकार उपहार के रूप में बहुत आम और सस्ते हो गये हैं। इससे अच्छा यह होता कि आप सद्भावना और बधाई के ही दो शब्द दे देते। बात भले ही सही रही हो। किन्तु इस भावना ने, इस दोष-दृष्टि ने उसको स्वयं तो प्रसन्न नहीं ही होने दिया साथ ही अपने मित्र और स्वजन की प्रसन्नता भी छीन ली।

यही बात नहीं कि दोष-दृष्टा केवल दूसरों में ही बुराई और कमियाँ देखता हो। स्वयं अपने प्रति भी उसका यही अत्याचार रहा करता है। उदाहरण के लिये वह बाजार से अपने लिये कोई वस्तु खरीदने जाती है। पहले तो वह कितनी ही प्रकार की चीजें क्यों न दिखलाई जायें, उसे पसन्द ही नहीं आती, सबमें कोई-न-कोई दोष दिखलाई देता है। वस्तु के निर्दोष होने पर भी वह अपनी और से किसी दोष का आरोपण कर ही लेगा। अपनी इस प्रक्रिया से थक जाने के बाद जब चीज लेकर घर आता है। तब भी उसका पेट अप्रशंसा से भरा नहीं होता। चीज डाली और कहना आरम्भ कर दिया- ‘‘खरीदने को खरीद तो अवश्य लाया लेकिन कुछ पसन्द नहीं आई। यदि पत्नी इस बात को नहीं मानती और चुनाव की प्रशंसा करती है, तो झूठी प्रशंसा का करने का आरोप पाती है। जब तक वह अपनी पसन्द, बाजारदारी, चीज की पहचान के विषय में आलोचना नहीं कर लेता, बुराई नहीं निकाल लेता, अपनी अकल और अनुभव को कोस नहीं लेता चैन नहीं पड़ता। इस प्रकार वह इस प्रसन्नता के छोटे अवसर को भी खिन्नता से कडुआ बना ही लेता है।

तात्पर्य यह है कि दोष-दर्शी कितने ही सुन्दर स्थान, वस्तु और व्यक्ति के संपर्क में क्यों न आये अपने अवगुण के प्रभाव से उससे मिलने वाले आनन्द से वंचित ही रहता है। निदान इस लम्बे-चौड़े संसार में उसे न तो कहीं आनन्द दीखता है और न किसी वस्तु में सामंजस्य का सुख प्राप्त होता है। उसे हर व्यक्ति, हर वस्तु और हर वातावरण अपनी रुचि के साथ असमंजस उत्पन्न करती ही दीखती है। जबकि गुण-ग्राहक हर व्यक्ति, हर वस्तु और हर वातावरण में सामंजस्य और सुन्दरता ही खोज निकालता है। यही कारण है कि गुण-ग्राहक सदैव प्रसन्न और दोषान्वेषक सदा खिन्न बना रहता है।

वस्तुतः बात यह है कि संसार की प्रत्येक वस्तु गुण-दोषमय ही है। कोई भी वस्तु एवं व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता कि जिसमें या तो गुण-ही-गुण भरे हों अथवा दोष-ही-दोष। अपनी दृष्टि के अनुसार हर व्यक्ति उसमें गुण या दोष देख कर प्रसन्न अथवा खिन्न हुआ करता है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मई 1968 पृष्ठ 23
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1968/May.23

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