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मैं माया और भगवान् के बारे में बचपन से ही सुन रहा हूँ .घर का अध्यात्मिक वातावरण,प्रत्येक सदस्य पूजा -पाठ करता था .मेरी दादी जी ,जो कि अनपढ़ हैं,वो भी सुबह से ही, आँख खुलते ही “राम राम सीताराम” कहना शुरू कर देती हैं और दैनिक कर्म भी करती जाती हैं .बाबा जी तो पूर्णतः ईश्वर पर ही निर्भर रहकर हर एक काम करते ही हैं .दिन में कई बार भगवान् के चित्रों पर , पूजा घर में ,बगीचे के शिवलिंग पर माथा टेकते हैं.कभी -कभी दादी जी उनसे irritate भी होने लगती हैं ,कहतीं एक बार पूजा हो गयी बस,दिन भर क्या इधर -उधर जादू जैसा करते रहते.बाबा जी कहते -संसार तो सब असार हैं ,सब मायामय है ,सत्य तो ईश्वर ही हैं.
लेकिन एक बार बाबा जी एक रिश्तेदारी में २-३ दिन के लिए चले गए.मै भी साथ जाना चाहता था ,पर दादी जी ने मुझे अच्छे -अच्छे पकवान,खीर ,रबड़ी,पेडा बनाकर खिलाने का लालच देकर घर पर रोक लिया.शाम हुई तो दादी जी उदास होकर बोलीं,इंसान की ही सब माया है ,बाबा आज घर पर नहीं तो अच्छा नहीं लग रहा.
उस दिन से मै यही रिसर्च कर रहा हूँ ,माया इंसान से(की) है ,स्त्री से है या स्त्री माया है ,भगवान् से है या माया एक अलग से माया ही है .
हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी ऐसा ही लिखा –
श्रुति सेतु पालक राम तुम जगदीश, माया जानकी .
तुम माया ,भगवान् शिव सकल जगत पितु-मातु .
उभय बीच श्री सोहति कैसी ,ब्रह्म जीव बिच माया जैसी . आदि-आदि .
यदि आदिशक्ति ,जगतजननी माँ -माया है ,तो बहुत अच्छा .माँ अपने बच्चों का सदैव भला ही चाहती है .तो माया भी हमारा कल्याण करेगी.
यदि स्त्री माया है ,तो भी अच्छा. ब्रह्म और जीव के बीच में यह माया रूपी स्त्री जीव को ब्रह्म से मिलाने में सेतु का कार्य करे. हमारे आचार्यों ने समझाया “सीता” जीव की प्रथम आचार्या हैं ,”लक्षमण” जीव के प्रथम आचार्य .सीता और लक्ष्मण ,जीव को राम तक पहुंचा देते हैं.
मेरा तो व्यक्तिगत मानना है -माया -वाया कुछ नहीं .सच्चे मन से भगवान् की उपासना करो और सही रास्ते पर चलने का आशीर्वाद मांगो ,सही कर्म करते रहो बस.
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