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अभी कुछ दिवस पूर्व समाचार पत्रों के माध्यम से अवगत हुआ,बिहार के उच्च न्यायालय ने गुम हुयें बच्चों को खोजकर बापस लाने की एक अंतिम तारीख सुनिश्चित की,सरकार के लिए | यह इस देश का एक दुखद सत्य है,पैसे के मद में पागल लोग बच्चों,बच्चियों,महिलाओं पर अत्याचार कर रहे हैं | शायद यही लोग कलियुगी महिषासुर ,रक्तबीज ,चण्ड -मुंड आदि हैं,जिनका अंत कोई दुर्गा ही कर सकती है,अर्थात मातृ शक्ति ही बच्चों को बचा सकती है | माँ से महान सर्जक ,पालक व् रक्षक सृष्टि में कोई नहीं है |
माता -पिता के लिए तो प्रत्येक दिवस ही बाल दिवस है ,यदि उसका बच्चा हंसी -खुसी से जी रहा है तो, और यदि बच्चा व्यथित है ,दुखी है ,किसी संकट में है ,तो हर घड़ी भयंकर लगती है माँ -बाप को | अतः यदि हम यह चाहते हैं कि,देश के बच्चे सुखी रहें,तो देश की युवा पीढ़ी को भी एक नयी जिम्मेदारी का अहसास होना चाहिए ताकि वह अपने और समाज के दुखी बच्चों को सुखानुभूति दे सकें|
श्रम तो सभी करते हैं,शायद किसी न किसी रूप में ,क्यूंकि -प्रकृति बाध्य करती है प्रत्येक जीव को श्रम करने के लिए ,पर प्रसन्नतापूर्वक किया गया श्रम ,ईश्वर उपासना बन जाता है और बाध्य होकर किया गया श्रम मानसिक खिन्नता और क्रोध पैदा करता है,जीव को अपने पैदा होने पर ही घृणा होने लगती है और उसका ह्रदय नफरत से भर जाता है |वह सोचता इस उम्र में मुझे क्या करना चाहिए और मैं क्या कर रहा हूँ ,मेरे ऊपर यह सब क्यों बीत रहा है,न्याय कहाँ है ,भगवान कहाँ है आदि -आदि अनेक अनुत्तरित प्रश्न ,उसके मनोमष्तिस्क में समुद्र के जवार -भाटे की तरह उठते रहते है और यही सब सोचते हुए वह नींद के आगोश में चला जाता है,जागने पर वह अपने आप में एक नवस्फूर्ति अनुभव करता है,पर अपने कार्य के बारे में सोचकर पुनः चिंताग्रस्त हो जाता है और बेमन से अपने ऊपर थोपे गए कार्य को करने के लिए कोशिश करता है |
दूसरी ओर तात्कालिक परिस्थियाँ भी बच्चे को विवश कर देती हैं,जैसे कि घर में पिता की बीमारी या मृत्यु के कारण बहुत से लोग बचपन के दिनों से ही श्रमिक हो जाते हैं ,कुछ आगे चलकर पढ़ना भी सीखते हैं और एक नयी ऊंचाई पर पहुँचते हैं ,एक नया आयाम स्थापित करते हैं और समाज में एक आदर्श बनकर स्थापित हो जाते हैं ,अनेक लोगों के लिए प्रेरणाश्रोत बन जाते हैं | बहुत से भटक भी जाते हैं,अंदर से बहुत टूट -चुके होते हैं और हर पल घुट -घुट कर जीने के लिए मज़बूर हो जाते हैं |
तीसरा बिंदु यह भी है,कुछ बच्चे बचपन से ही श्रम करने के लिए लालायित रहते हैं ,उन्हें पुस्तकों से प्यार नहीं होता है,पढ़ाई का डर उनके अंदर बैठ जाता है और वह पढ़ाई से दूर भागते हैं | एक ऐसी ही सच्ची घटना मेरी माँ जी मुझे सुनाया करती थी बचपन में -एक अध्यापक के १०-१२ वर्षीय बेटे ने अपने पिता से एक दिन कहा -मैं पढूंगा नहीं ,मेरा मन नहीं लगता पढ़ने में | अध्यापक ने कहा ,ठीक है ,तो मज़दूरी करनी पड़ेगी | बच्चे ने कहा कोई बात नहीं,करूंगा | अध्यापक ने कहा,चलो आज से ही ,अपने घर से चालू कर दो | उस दिन रविवार था | अध्यापक ने अपने बच्चे को मिट्टी ढोने के काम में लगा दिया | स्वयं मिट्टी खोदकर एक छोटी डलिया में भरकर बच्चे के सिर पर रखता और घर पर डालने को कहता | पूरे दिन मिट्टी डलवायी अध्यापक ने अपने बच्चे से ,शाम होते -होते बच्चा रो-रोकर कहने लगा ,मैं पढूंगा ,अवश्य पढूंगा ,मैं मज़दूरी नहीं कर पाऊंगा |
चौथा बिंदु यह भी है ,कुछ लोग ३०-३२ वर्ष तक निठल्ले ही घुमते रहते हैं ,उन्हें कुछ परिश्रम करने की इच्छा ही नहीं होती,कुछ कार्य करने में वह अपनी तौहीन समझते हैं,जैसे झाड़ू लगाना, घर के बाथरूम की नाली को साफ़ करना ,जानवरों का गोबर वगैरह डालना ,उनकी सोच रहती -सीधे जिलाधीश ही बनेंगेऔर यदि नहीं बन पाएंगे तो बाकी का जीवन भी अवसादपूर्ण जीते हैं ,अतः जैसे -जैसे उम्र बढ़ती है ,वैसे -वैसे मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम करने की क्षमता भी बढ़नी चाहिए ,इसे ही हमारे महापुरुषों ने स्वाम्लम्बन कहा |
जैसे गांव का किसान नए बछड़ों से थोड़ा -थोड़ा भार वहन करवाते हुए उन्हें कृषि कार्य के लिए सुयोग्य बना देता है,वैसे ही मनुष्य को भी अपने बच्चों को धीरे -धीरे,उम्र के अनुसार श्रम करवाते हुए मज़बूत बना देना चाहिए |
आज आवश्यकता है,बच्चों को ऐसे अवसर प्रदान किये जाये जिससे वह खुद को एक महान इंसान बना सके |
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