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“माँ की सीख”

SUBODHA
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हर एक इंसान के अंदर माँ का दिल है,चाहे वह भीम हो या दुर्योधन. धृतराष्ट्र भी व्यास जी के तेज से उत्त्पन्न हुए, उसी तेज से पाण्डु और विदुर . पर माताएं अलग -अलग थी.किसी भी जीवन को ढ़ालने में सबसे बड़ा योगदान है ,तो माँ का.
मैं कक्षा -४ में पढता था,स्कूल से वापस आकर,भोजन के पश्चात तुरंत घर से बाहर अपने दायें -बाएं के दोनों पड़ोसी लड़कों के साथ ऊँच-नीच———–बोल मेरी मछली कितना पानी,
खेलने लगता था.माँ जी बड़े दरवाजे के पास आकर ,बाहर झांककर बुलाती थी,मैं जाता ही नहीं था,मुझे पता था माँ जी बाहर तो पकड़ने आयेगीं नहीं. जब बाबा घर पर आएंगे,तब मैं जाऊंगा.
एक -दो दिन माँ जी ने समझाया,पर मूर्ख -चंचल मन कहाँ समझने वाला. एक दिन मैं जैसे ही बाहर जाने के लिए तैयार हुया,माँ जी ने पकड़ा मुझे,बरामदे में जमीन पर लिटाकर,अपने एक पैर से दबाकर इतना मारा मुझे,कि खुद भी बेदम हो गयी.दादी बोली -मार ही डालना आज.माँ जी बोली -हाँ मार डालूंगी.
पर उस दिन से प्यारे, खेलना बंद हो गया.खेल की आधी पंक्ति मेरे स्मृति पटल से सदा के लिए डिलीट हो गयी.
ऐसे ही ,एक बार छोटे भाई को फीवर था.माँ जी उसको लेकर टाउन जा रही थीं.मैं भी जाने की जिद किया.मैं कुछ दूसरे कार्य से कहीं और गया,तब तक माँ जी चलीं गयीं.मैं लौटकर घर से दौड़ता हुआ १ किलोमीटर सड़क तक गया, और वही बस पकड़ लिया,जिस पर माँ जी और भाई चढ़े थे.पर माँ जी ने तो बिलकुल बात ही नहीं की,घर लौटकर आये,तो पहले जैसी पिटाई की पुनरावृत्ति हो गई.
उस दिन से कहीं किसी के साथ जाने की जिद छोड़ दी.
मैंने अपने मन को समझाया,अब तीसरी गलती कभी मत करना.यह शरीर अब और मार झेल नहीं पायेगा.तेरे चक्कर में इसको पिटाई खानी पड़ती.
इन्ही दो डोज़ की वजह से शायद मैं इंजीनियर बन गया,नहीं तो गांव के ऊसर में जानवर चराने के सिवाय,दूसरा कोई रोजगार नहीं मिलता.
“जय जननी,जय जन्मभूमि”

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