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“माँ”-पुष्पांजलि

SUBODHA
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मैं थी एक भटकती आत्मा,तुम तो मेरा महल बन गयी.
मुझको जीवन देने खातिर,तुम मेरी भगवान बन गयी ..
अपने सारे सपनों को,मुझमे आहूत कर दिया तुमने.
मुझको जीवनदान हेतु,मृत्यु साक्षात्कार कर लिया तुमने..
पर सहम गया वो काल भी तुमसे,जिससे मैं डर जाता हूँ .
तेरी निर्भयता के आगे मैं, शत -शत शीष झुकाता हूँ..
दूधमति की एक ही धारा, सीता के खातिर फूटी.
पर तेरी दो-दो धाराएं ,मेरे जीवन पर छूटी..
मेरा जन्मदिवस(करवाचौथ-मंगलवार) भी, तेरा उपवास बन गया.
मंगल का मंगल करना ही, बस तेरा एक लक्ष्य बन गया..
अभिमन्यु की तरह, कोख में, तूने मुझे सिखाया होगा.
जीवन में कैसे चलना है,तूने मुझे बताया होगा..
जब भी मन घबराता है,मैं तेरा ज्ञान सिखाता हूँ.
तेरी दूरदर्शिता को मैं, शत -शत शीष झुकाता हूँ..
बस यही कामना करता मैया,जब तक मेरी साँस चले.
मृत्युलोक की इस बसुधा पर,जब तक जीवन ज्योति जले..
मेरे स्मृति पुराण में माँ ,तेरा स्वर्णिम चित्र रहे .
मेरी हर एक गाथा में,माँ तेरा जीवंत चरित्र रहे..
जीवन की अंतिम बेला में ,जब काल हमारे ऊपर हो.
मेरे अंदर तुम ही रहना,जब सम्मुख घनघोर अँधेरा हो ..
जीवन में जो भी अच्छा था,तुझको अर्पण करता हूँ .
अपनी गलती के फल को मैं, खुद को प्रत्यर्पण करता हूँ ..
बस यही एक पुष्पांजलि माता ,तुझको अर्पण करता हूँ.
शत -शत शीष झुकाता हूँ ,मैं शत -शत शीष झुकाता हूँ..

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