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“मिड डे-मील या जहर”

SUBODHA
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पैदा तो सब मरने के लिए ही होते हैं ,पर हर एक कार्य का उचित समय होता है.इस देश में जो अब तक अनेक नन्हीं और भोली जानें,एक कल्याणकारी योजना के नाम से जा चुकी हैं,यह सरकार और समाज की मूर्खता का कारण है.मुझे नहीं लगता कोई विचारवान इंसान अपनी संतान को मिड डे मील खाने के लिए विद्यालय भेजेगा. एक अनपढ़ और भोली, गांव में जीवन जीने वाली माँ भी ,जब अपने बच्चे और परिवार के लिए भोजन पकाती और परोसती है,तो कितना ध्यान रखती,कहीं उसका बाल भी भोजन में न जाने पाये. और एक विद्यालय जिसमे बच्चों के बैठने की भी सही छत नहीं,उसमे रसोई तैयार होकर,परोसी जा रही है,भोली और भूखी जन संतानो को.
क्यों नहीं सरकार इसे बंद करती,क्यों लोग इसके लिए आंदोलन नहीं करते,क्यों बच्चों के मरने के बाद हम अपनी छाती पीटते हैं?
यदि गरीब बच्चों को भोजन बाँटने और पढाई के लिए बुलाने का इतना जज्बा है ,तो पैक्ड फ़ूड दो.बिस्कुट,चिप्स,उपमा इत्यादि आजकल सब कुछ उपलब्ध है.इस देश में अनेक फ़ूड पैकेजिंग की कंपनियां हैं,क्यों नहीं वह सब इस मुद्दे पर एकजुट होते.
पर नहीं,गरीब की जान बहुत सस्ती है,मरते रहो हर साल ऐसे ही,बाद में संतान के लिए रोते रहो अपनी अंतिम सांस तक.याद करते रहो,मेरी एक औलाद मर गयी,विद्यालय में पढ़ने के चक्कर में और प्रतिज्ञा कर लो,अब आगे से किसी को नहीं पढ़ाएंगे.
मैंने भी अपने गांव के प्राइमरी में पढ़ा.तब कुछ २० आना( १ रुपये २५ पैसे) [२५ पैसे =४ आना]फीस पड़ती थी.
न अनाज मिलता था और न भोजन.उस वक्त लगभग हर क्लास में ३०-५० लड़के होते थे.मेरे प्रधानाध्यापक श्री बाबूराम रजक जी,बहुत अनुशाषित और कुशल थे,बच्चो को अपने हाथ से होल्डर की निब घिसकर देते थे.मार्केट से खरीदकर भी लाते थे और बच्चों का हाथ पकड़कर अच्छी हैंड राइटिंग में लिखने की कोशिश करवाते थे.सभी अन्य अध्यापक भी उनके सामने अनुशासन से रहते थे.
पर अब न पढ़ने वाले और न वो पढ़ाने वाले.हर गांव में एक शिक्षा की प्राइवेट दुकान है,जो पढ़ाई के नाम पर मोटी रकम वसूल रहे हैं,यही हाल शहरों में हैं.कान्वेंट और पोद्दार के लड़के भी असफल हो जाते जीवन में.
अच्छी चेतना पढ़ती है,और कोई महान चेतना पढ़ाती है ,तब उद्धार होता है किसी जीव का.
“जय हिन्द,जय भारत”.

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