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“मुंबई का मानव”

SUBODHA
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पिछले कुछ दिनों से,
जैसे ही मैं मुंबई लोकल के कुर्ला स्टेशन पर पहुँचता .
मेरे मनो-मष्तिष्क में,
एक कविता का शीर्षक तैयार हो जाता.
मानो मुझसे कोई लगातार यह कह रहा हो,
मुझे अंदर से बहुत धकेल रहा हो,
मेरे मष्तिष्क के महासागर में अनेक शब्द की तरंगे-
उत्पन्न कर रहा हो.
लिख दो कुछ इस मानव के ऊपर,
जो रेंग रहा कीड़े -मकोड़ो की तरह.
दौड़ रहा घुड़दौड़ में,
जैसे मुंबई की हर गली,हर सड़क ,हर स्टेशन-
रेस कोर्स हो.
जैसे पूरा मुंबई एक महासागर है ,
और यह तथाकथित मानवों का समुदाय-
उस महासागर के अनगिनत जीव.
जैसे शिव गिनने में असमर्थ हो गए -राम सेना में वानर कटकु देखकर,
और तुलसी ने शिव की ओर से लिखा-
!!वानर कटकु उमा मैं देखा ,सो मूरख जो करन चह लेखा !!
वैसे ही मैं भी असमर्थ हूँ —
इस भीड़ की गिनती करने में.
इस भीड़ का क्षेत्र ,धरम ,जाति- आधारित ,
वर्गीकरण करने में.
कौन गरीब ,कौन अमीर यह जानने में.
यहाँ तो सब एक जैसे ही हैं.
जैसे कितना भी दूसरे साथी या मानव को मारने वाला पशु-
बाजार में ले जाकर खड़ा कर दिए जाने पर,
अपना स्वाभाव बदल कर परम शांत बन जाता है.
हमेशा सर नीचे किये अपने ध्यान में ही मग्न रहता है.
दूसरे किसी जानवर की तरफ सर उठाकर देखना तो दूर,
तिरछी नज़र से भी नहीं देखता.
वैसे ही यह मानव यहाँ परम साधु स्वाभाव का बन जाता है.
कभी -कभी भीेड़ भी बहुत ज्ञान देती है -एकाग्रता,आत्मकेंद्रित,आत्मनिर्भरता
जैसे छिपे गुण प्रकट कर देती है.
मुंबई के लोकल स्टेशन के ऊपर,
विराजमान अनेक ” सूर” विक्रेता,
यह सोचने को विवश कर ही देंगे-पैसा कैसे कमाया जा सकता है.
यदि उन जैसे इंसान कुछ अच्छा कार्य करके पेट पूजा का बंदोबस्त कर सकते हैं ,
तो हम दो- दो लौकिक चक्षु धारक, दुनिया घूमने और देखने वाले लोग क्यों नहीं.
यदि बिना पैरों का मानव, भीड़ में भी निर्भीक होकर चल सकता है,
तो हम दो चलायमान पैर होकर भी,क्यों निर्जीव की तरह पड़े रहते हैं.
हमें क्यों नहीं ऐसा लगता –
अब उठना चाहिए,
कुछ करना चाहिए,
हाथ -पर -हाथ धरे बैठे रहने से,
पेट नहीं भरने वाला.
भोजन ग्रहण करने में भी,
बहुत परिश्रम करना पड़ता है.
आओ हम याद करें,
हिमालय के गर्भ से गंगा निकालने वाले हमारे पूर्वजों को,
उनकी भागीरथी तपस्या को,जिनके ६०,००० पुरखे खप गए,
गंगा अवतरण होते -होते.
पर हार नहीं मानी,पीढ़ी -दर-पीढ़ी लगे रहे-
एक “घोड़े की खोज” का रूपक बनाकर.
अब तो हम १२० करोड़ के ऊपर हैं,
न जाने कितनी नयी गंगा अवतरण करने का दम-ख़म रखते हैं.
बस केवल एक “भगीरथ प्रयास” की आवश्यकता है.

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